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________________ भी तीन भेद हैं - उद्धार सागरोपम, अद्धा सागरोपम और क्षेत्र सागरोपम। इनमें से प्रत्येक पल्योपम और सागरोपम दो-दो प्रकार का होता है - १) बादर और २) सूक्ष्म। अनुयोग द्वार सूत्र में सूक्ष्म और व्यावहारिक भेद किये हैं। पल्योपम और सागरोपम के तीन-तीन भेद द्वारा क्रमशः दीप समुद्रों, आयु और त्रसादि जीवों की गणना की जाती है। ___पल्योपम सागरोपम का काल प्रमाण :७३ उत्सेघांगुल के द्वारा निष्पन्न एक योजन (चार कोस) प्रमाण लंबा, एक योजन प्रमाण चौड़ा और एक योजन प्रमाण गहरा एक गोल पल्य (गढ़ा, कुंआ) बनाना चाहिये, जिसकी परिधि कुछ कम ३॥योजन होती है। एक दो-तीन यावत् सात दिन वाले देवकुरू उत्तरकुरू युगलिकों के बालों के असंख्य खण्ड करके उन्हें उस पल्य में इतना ठसाठस भर देना चाहिये कि न उन्हें आग जला सके, न वायु उड़ा सके और न जल का ही उसमें प्रवेश हो सके। उद्धार पल्य से प्रति सौ-सौ वर्ष के बाद एक - एक खण्ड निकाला जाये, निकालते-निकालते जब वह कुंआ खाली हो जाय, तब वह एक बादर अद्धापल्योपम काल होता है (इसमें असंख्य वर्ष लग जाते हैं) बालाओं के अग्र भागों से पूर्व की तरह कुआं ठसाठस भर दो। वे अग्र भाग आकाश के जिन प्रदेशों को स्पर्श करें उनमें से प्रति समय एक-एक प्रदेश का अपहरण करते - करते जितने समय में समस्त प्रदेशों का अपहरण किया जा सके, उतने समय को बादर क्षेत्रपल्योपम काल कहते हैं। तथा दस कोड़ा - कोड़ (१० करोड़ को एक करोड़ से गुणा करना) पल्योपम का एक सागरोपम होता है। दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक अवसर्पिणी काल और दंस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक उत्सर्पिणी काल होता है। अवसर्पिणी काल में छह आरे होते हैं - सुषम-सुषम, सुषम, सुषम-दुःषम, दुःषम-सुषम, दुःषम और दुःषम-दुःषम। इनमें क्रमशः पसलियां, आयु, बल, शरीर - प्रमाण, आहार आदि में हास होता रहता है जब कि उत्सर्पिणी काल में इन सभी में क्रमशः वृद्धि होती रहती है। उत्सर्पिणी काल के भी छः ही आरे हैं। दुःषम- दुःषम, दुःषम, दुःषम-सुषम, सुषम - दुःषम, सुषम और सुषम - सुषम । अवसर्पिणी का कालमान दस कोड़ा कोड़ी सागरोपम और उत्सर्पिणी का भी कालमान दस कोड़ा कोड़ी सागरोपम ही है। दोनों को मिलाकर बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक्र कहलाता है।५४ जो भरत और ऐरावत क्षेत्रों में ही होता है । ऐसे अनन्त कालचक्रों का एक पुद्गल परावर्तन होता है। दूसरे शब्दों में इसे अनन्तकाल कह सकते हैं। ___इस जीवात्मा ने अनन्त पुद्गल - परावर्त काल-मान सूक्ष्म निगोद में व्यतीत किया। उसमें से निकलने के बाद भी बादर निगोद में अनन्त पुद्गल परावर्त - काल संसार परिभ्रमण में व्यतीत किया। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सतत चारों गति में परिभ्रमण करता ही रहा। अकाम निर्जरा करते - करते द्रव्य साधु बनकर नवप्रैवेयक तक भी चला १२२ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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