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विवक्षित अवसर्पिणी काल के पहले समय में मरा, पुनः उसके निकटवर्ती दूसरे समय में मरा, पुनः तीसरे समय में मरा, इस प्रकार क्रमवार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के सब समय में जब मरण कर चुकता है तो उसे सूक्ष्म काल पुद्गल परावर्त कहते हैं। क्षेत्र की तरह यहाँ भी समयों की गणना क्रमवार करनी चाहिये। ___अनुभागबंधस्थान - कषायस्थान तरतम भेद के लिये असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के समान हैं। उन अनुभागबंधस्थानों में से एक-एक अनुभाग - बंध स्थान में क्रम या अक्रम से मरण करते करते जीव जितने समय में समस्त अनुभाग बंध स्थानों में मरण कर लेता है, उतने समय को बादर भावपुद्गल परावर्त कहते हैं। सबसे जघन्य अनुभाग बंध स्थान में वर्तमान कोई जीव मरा, उसके बाद उस स्थान के अनन्तरवर्ती दूसरे अनुभाग बंध स्थान में भी मरा, उसके बाद उसके अनन्तरवर्ती तीसरे आदि अनुभाग बंध स्थानों में मरा इसी क्रम में...। इस प्रकार क्रम से जब समस्त अनुभागबंध - स्थानों में मरण कर लेता है तो वह सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्त कहलाता है।
इस प्रकार बादर और सूक्ष्म पुद्गल परावतों का स्वरूप है। यद्यपि द्रव्य पुद्गल परावर्त के सिवाय अन्य किसी भी परावर्त में पुद्गल का परावर्तन नहीं होता है। क्योंकि क्षेत्र पुद्गल परावर्त में क्षेत्र का, काल पुद्गल परावर्त में काल का और भाव पुद्गल परावर्त में भाव का परावर्तन होता है, किन्तु पुद्गल परावर्त का काल अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के बराबर बतलाया है और क्षेत्र, काल और भाव परावर्त का काल भी अनन्त उत्सर्पिणी अनन्त अवसर्पिणी होता है। अतः इन परावतों की संज्ञा पुद्गल परावर्त रखी गई है।६८
जब जीव - मरण कर - करके पुद्गल के एक - एक परमाणु के द्वारा समस्त परमाणुओं को भोग लेता है, तो वह द्रव्य पुद्गल परावर्त और आकाश के एक-एक प्रदेश में मरण करके समस्त लोकाकाश के प्रदेशों को स्पर्श कर चुकता है, तब वह क्षेत्र पुद्गल परावर्त कहलाता है। इसी तरह काल और भाव के विषय में भी जानना चाहिये। इसी को दृष्टि में रखकर द्रव्य पुद्गल परावर्त आदि नामों से काल का विभाग कर दिया है और जो पुद्गल परावर्त जितने काल में होता है, उतने काल के प्रमाण को उस पुद्गल परावर्त के नाम से कहा जाता है। इस प्रकार अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल का एक पुद्गल परावर्त होता है।
काल चक्र का स्वरूप : व्यवहार काल का सबसे सूक्ष्मतम अंश है समय, जिसका खण्ड नहीं किया जा सकता। वह अविभाज्य अंश है। 'इस' 'समय' के पश्चात् ही अन्य उत्तरवर्ती काल की गणना होती है। प्राचीन काल गणना का संक्षेप में निर्देश करते हुए समय, आवलिका (असंख्यात समय की एक आवली), उच्छ्वास (संख्यात आवली), १२०
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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