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________________ किया है। मन की एकाग्रता में सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय सोपान रूप है। मन की तल्लीनता (एकाग्रता) ही ध्यान है। इसीलिए शास्त्र का चिन्तन मनन करने के बाद ही ध्यान हो सकता है। स्वाध्याय = स्व का चिन्तन करने वाला ही ध्यान का अधिकारी है। युद्ध में हाथी शौर्य और वीरत्व का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए पूज्यपादजी ने आत्मयुद्ध में भी हाथी का चित्र लिया । इसमें श्रुतज्ञान की सम्पूर्ण निधि 'अ' कार से लेकर 'ह' कार तक भर दी है। चित्र को सामने रखकर ध्यान करने से आत्मबल बढ़ता है और आत्मबल बढ़ने से कषाय की मंदता होती है। जैसे जैसे कषाय मंद होती है वैसे-वैसे ध्यान में वृद्धि होती है। यही इस चित्र का रहस्य है। 'शीलरथ'' इस चित्र में १८००० शील का वर्णन है। साधु संयम रथ पर आरूढ़ होकर कर्मशत्रु को ध्यान से पराजित कर सकता है। धर्मध्यान में प्रगति करने पर ही साधक शुक्लध्यान की साधना कर सकता है। यही भाव इस चित्र में स्पष्ट किया है। मन वचन काय की शुभाशुभ प्रवृत्ति रोकना और शुद्ध परिणाम में आना ही ध्यान है। शुद्धात्मा का ध्यान ही वास्तविक ध्यान है। 'विचित्रालंकार'२ काव्य में चौबीस तीर्थकरों की स्तुति के साथ नवकार मंत्र को छत्रबन्ध और दुर्गबन्ध छन्द में वर्णित किया है। इस चित्र से अरिहंत, सिद्ध और साधु का ध्यान ही श्रेष्ठ बताया है। इनका स्मरण करने से ध्यान की योग्यता आती है। अतः इन्हीं का ध्यान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त पूज्यपाद तिलोकऋषिजी म. ने भारत के प्रसिद्ध शहरों के नामों पर, मनुष्यों पर एवं दक्षिण देश के गावों पर आध्यात्मिक पदावली बनाकर जैन धर्म में प्रसिद्ध साधना पद्धति को स्पष्ट किया और उनमें ध्यान पद्धति को श्रेष्ठ बताया है। इस प्रकार इन्होंने ध्यान के स्वरूप को सरल पद्धति द्वारा स्पष्ट किया है। १. श्री सत्य बोध, पृ. १४-१५ २. तिलोक काव्य संग्रह, पृ. ६९-७० . संदर्भ सूची १. से किं तं सम्मसुयं ? सम्मसुयं जं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णनाणदंसणधरेहिं तेलुक्कनिरिक्खियमहियपूइएहिं तीयपडुप्पण्णमणायगय - जाणएहिं सव्वण्णूहि सव्वदरिसीहिं पणीयं दुवालसंगं गणिपिडगं तं जहा आयारो, सूयगडोजाव जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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