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माता स्व. प्यारीबाई चोपडा अपने धर्मवीर पति की अनुगामिनी श्रीमती प्यारीबाई भी धर्म-साधना में सदा अग्रसर रही हैं। त्यागभावना, व्रत प्रत्याख्यान, सन्त-सती सेवा आदि में ही अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया। अपने पतिदेव से सहमत हो अपनी दो प्रिय पुत्रियाँ जिनशासन की अभ्यर्थना एवं प्रचार के लिए समर्पित की, जो अपने वक्तृत्व एवं कर्तृत्व के बल पर श्रमण संघ की गरिमा को चार चाँद लगा रही हैं। स्व. प्यारीबाई संत-सतियों की सेवा में सदा आनन्दानुभूति करती रही। उन्हीं के पवित्र संस्कारों की संपदा उनके सुपुत्र संपतलालजी विनम्रता एवं लगन के साथ वहन कर रहे हैं।
श्रीमती प्यारीबाई ने भी अपने पतिराज का अनुकरण जीवन की संध्या में किया, एवं अपनी धर्मनिष्ठा-भक्ति का परिचय दिया। उन्होंने अपनी पुत्री साध्वी प्रियदर्शनाजी के मुखारविंद से संथारा व्रत धारण कर समाधिमरण प्राप्त किया। इन दोनों के जीवन की एक विशेषता यह रही कि, इन दोनों ने एक ही तारीख को याने २२ तारीख को इहलोक की यात्रा पूर्ण की।
ज्येष्ठ भगिनी सौ. ताराबाई पीतलिया ___ चोपडा दंपती की ज्येष्ठ सुपुत्री सौ. ताराबाई अपने माता-पिता के पवित्र संस्कारों की देन अपने जीवन में निभा रही हैं। उनका शुभ विवाह कोल्हापूर निवासी श्री मोतीलालजी पीतलिया के साथ संपन्न हुवा। अत्यन्त सरल स्वभावी सौ. ताराबाई का जीवन आचार-विचारों की माधुरी से ओतप्रोत है। उनकी स्वभाव - माधुरी के कारण हर व्यक्ति उनकी ओर आकर्षित होता है। वज्र (सम) सेवाव्रत धारिणी सौ. ताराबाई ने अपनी पूजनीय माता के जीवन की अन्तिम घडी तक निरलस सेवाव्रत का आदर्श निर्माण किया। धार्मिक कार्यों में भी वह सदा अग्रसर रहती हैं।
धर्मपत्नी सौ. कुसुमबाई भारतीय संस्कृति में पत्नी को पति की अर्धांगिनी का स्थान दिया जाता है। सौ. कुसुमबाई ने हर कार्य में अपने पतिराज को पूरा सहयोग समर्पित कर अर्धागिनी पद यथार्थ बनाया है। मिलनसार स्वभाव की एवं प्रसिद्धीविन्मुख होने के कारण गृहकार्यदक्ष एवं सेवा की प्रतिमूर्ति बनी हुई हैं। अपनी पूजनीया सास की अन्तिम क्षण तक निरलसता से उन्होंने सेवा की। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन का आर्थिक दायित्व उठाने की प्रेरणा अपने पति को सौ. कुसुमबाई ने ही दी है।
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