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________________ समस्त कमों की आलोचना कर संलेखना तप द्वारा कर्ममल का क्षय करके सौधर्म देव लोक में सूर्याभदेव बने। ध्यान की योग्यता सन्त शरण से ही प्राप्त होती है। यह इस आगम में खास बताया गया है। सन्त शरण से समता का बीजारोपण होता है। समत्वयोग ही ध्यान है। यह पएसी राजा की कथा से स्पष्ट किया गया है। प्रस्तुत आगम अमदाबाद एवं अन्य स्थानों से प्रकाशित किया गया है। ३) जीवाजीवाभिगम:- प्रस्तुत आगम ठाणांग का उपांग है। उपांग साहित्य में इसका तीसरा नंबर है। इसमें जीव अजीव तत्त्व का विस्तृत वर्णन है। जीव द्रव्य से समस्त संसारी जीवों का विवेचन है और अजीव द्रव्य द्वारा अधो लोक, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक का भी व्यापक दृष्टि से वर्णन है। मध्यलोक से संबंधित जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड द्वीप, अर्द्धपुष्करार्ध द्वीप आदि का विस्तृत वर्णन है। इस आगम में धर्मध्यान का चतुर्थ भेद लोक संस्थान विचय का विस्तृत वर्णन मिलता है। प्रस्तुत आगम अमदाबाद से प्रकाशित है। ४) पनवणा (प्रज्ञापना) :- यह समवायांग का चौथा उपांग है। इसमें ३४९ सूत्रों द्वारा विभिन्न विषयों पर विचार किया गया है। उसमें छह जीवनिकाय (पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पति काय और त्रसकाय), लेश्या एवं केवलीसमुद्घात के विस्तृत वर्णन से धर्मध्यान और शुक्लध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया है। केवलीसमुद्घात शुक्लध्यान के द्वितीय भेद की प्रक्रिया है। इसमें विशेषतः धर्मध्यान का चतुर्थ भेद संस्थान विचय धर्मध्यान और शुक्लध्यान का तीसरा भेद सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती का विशेष स्वरूप स्पष्ट हो रहा है। प्रस्तुत आगम अमदाबाद से प्रकाशित किया गया है। ५) जम्बुद्दीघपण्णत्ती :- इसकी क्रम संख्या में मतभेद है। कहीं-कहीं इसे पाचवाँ या छट्ठा उपांग माना गया है। इसमें विशेषतः काल चक्र का वर्णन विस्तृत रूप से किया गया है। इसके अतिरिक्त जम्बूद्वीप का विस्तृत वर्णन करके, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थकर, एवं प्रथम चक्रवर्ती ऋषभदेव के चरित्र द्वारा पाँच महाव्रत, छह जीवनिकाय एवं अष्ट प्रवचन माता का स्वरूप स्पष्ट किया है। ये सभी धर्मध्यान में सहायक अंग हैं। धर्मध्यान की साधना के बाद ही शुक्लध्यान की साधना से ऋषभदेव भगवान् को ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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