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यह आगम लुधियाना से प्रकाशित है।
१०) पण्हावागरणाई:- समवायांग एवं नन्दीसूत्र के अनुसार प्रस्तुत आगम का एक ही श्रुतस्कन्ध है, किन्तु अभयदेव वृत्ति ३ में इसे दो श्रुतस्कन्ध में विभाजित किया गया है- १) आम्रवद्धार और २) संवरद्वार। आगे चलकर वे भी पुनः इसी धारणा पर आ जाते हैं कि दो श्रुत न मान कर एक ही मान लिया जाय।३४ परन्तु हमारी धारणानुसार प्रस्तुत आगम आस्रव और संवर इन दोनों का भिन्न-भिन्न विषय होने से दो श्रुतस्कन्ध मानना ही तर्क संगत है। आस्रव (हिंसा, असत्य, स्तेय-चोरी, अब्रह्मचर्य व परिग्रह) के द्वारा मन का रोग भवभवान्तर तक बढ़ता रहता है। उन रोगों की सही चिकित्सा संवर (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह) द्वारा ही हो सकती है। संत्रर की साधना ही ध्यान का फल है। धर्म ध्यान की साधना ही संवर की साधना है। अतः इसमें ध्यान साधना में आने वाले बाधक और साधक तत्त्व का वर्णन किया है।
११) विवागसुय :- यह द्वादशांगी का ग्यारहवाँ अंग है। इसके दो श्रुतस्कन्ध और २० अध्ययन हैं। दुष्कृत सुकृत कमों के विपाक का विस्तृत वर्णन होने से इसका नाम विवाग सुय रखा गया है।
जैन दर्शन का प्रधान अंग कर्म सिद्धान्त है। और ध्यान का फल कर्म निर्जरा है।
प्रथम श्रुतस्कन्ध के दस अध्ययन मृगापुत्र, उज्झितक, अभग्न सेन, शकट, बृहस्पति, नन्दिवर्धन, उम्बरदत्त, शौरिकदत्त, देवदत्ता व अंजु द्वारा रौद्र ध्यान के दुष्परिणाम का फल बताया है और स्पष्ट किया है कि आद्य दो ध्यान (आर्त व रौद्र) त्याज्य हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भी दस अध्याय सुबाहुकुमार, भद्रनन्दी, सुजातकुमार, सुवासवकुमार, जिनदासकुमार, धणपतिकुमार, महाबलकुमार, भद्रनन्दीकुमार, महाचन्द्रकुमार व वरदत्तकुमार द्वारा अन्तिम शुभ धर्म और शुक्लध्यान की आराधना का सुफल स्वर्ग और मोक्ष बताया है।
- प्रस्तुत आगम में धर्मकथानुयोग द्वारा आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान का स्वरूप, लक्षण एवं फल स्पष्ट कर दिया है। तथा शुभ और अशुभ ध्यान की व्याख्या भी स्पष्ट दी है। शुभ ध्यान ही करने योग्य बताया है अशुभ नहीं।
१२) दृष्टिवाद:- यह आगम वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। १२ उपांग:
सभी उपांग साहित्य में ध्यान संबंधी विषय नहीं है। १२ अंग के ही १२ उपांग हैं। जिन-जिन उपांगों में ध्यान संबंधी सामग्री है, उन्हीं उपांगों का नाम नीचे उल्लेख किया जा रहा है
ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
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