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________________ अध्याय-६ विद्यादेवी या महाविद्या मूर्तियाँ जैन धर्म में विद्यादेवियों की कल्पना पर्याप्त प्राचीन है, जिसके उल्लेख प्रारंभिक जैन ग्रंथों : स्थानांगसूत्र, सूत्रकृतांग, औपपातिक सूत्र, नायाधम्मकहाओ एवं पउमचरिय में प्राप्त होते हैं । हरिवंशपुराण (७८३ ई०), त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र (१२वीं शती ई०) तथा अन्य परवर्ती ग्रंथों में भी विद्यादेवियों के अनेक उल्लेख हैं । जैन परम्परा में इन विद्याओं की संख्या ४८००० तक बताई गई है। विद्यादेवियों की इस संख्या में से १६ प्रमुख विद्यादेवियों का चयन कर ल० ९वीं शती ई० के अन्त में १६ महाविद्याओं की एक सूची नियत हुई। सर्वप्रथम इन महाविद्याओं का विस्तृत निरूपण चतुर्विशतिका ( बप्पभट्टिसूरिकृत, ७४३-८३८ ई० ) में हुआ है, किन्तु यहाँ १६ के स्थान पर केवल १५ महाविद्यायें ही निरूपित हैं ।२ १६ महाविद्याओं का प्रारम्भिक निरूपण स्तुतिचतुविशतिका ( योभनमुनिकृत, ल० ९७३ ई० ) एवं निर्वाणकलिका ( ल० १०वीं-११वीं शती ई० ) में हुआ है। ___ जैन शिल्प में इन महाविद्याओं के उकेरन के प्राचीनतम उदाहरण ओसियाँ ( जोधपुर, राजस्थान ) के महावीर मंदिर ( ल० ८वी-९वीं शती ई० ) में हैं। ९वीं शती ई० के बाद गुजरात एवं राजस्थान के जैन मन्दिरों पर इन महाविद्याओं का अनेकशः अंकन हुआ है । १६ महाविद्याओं के सामूहिक चित्रण के प्रमुख उदाहरण कुंभारिया ( बनासकांठा, गुजरात) के शांतिनाथ मंदिर (११वीं शती ई०) तथा दिलवाड़ा के विमल वसही (सिरोही, राजस्थानदो समूह : रंगमण्डप एवं देवकुलिका ४१, १२वीं शती ई० ) एवं लूण वसही ( सिरोही, राजस्थान, रंगमण्डप, १२३० ई० ) में हैं। __ जैन ग्रंथों में १६ महाविद्याओं की सूची में निम्नलिखित नाम मिलते हैं : १-रोहिणी, २-प्रज्ञप्ति, :-वज्रशृंखला, ४-वज्रांकुशा, ५-अप्रतिचक्रा या चक्रेश्वरी ( श्वे० ), जांबूनदा ( दि०), ६-नरदत्ता या पुरुषदत्ता, ७–काली या कालिका, ८-महाकाली, ९-गौरी, १०-गांधारी, ११-सर्वास्त्रमहाज्वाला या ज्वाला (श्वे०), ज्वालामालिनी (दि०), १२-मानवी, १३-वैरोट्या ( श्वै० ), रोटी ( दि०), १४-अच्छुप्ता ( श्वे० ), अच्युता ( दि०), १५-मानसी, १६-महामानसी। १. विस्तार के लिए द्रष्टव्य, शाह, यू० पी०, “आइकनोग्रफी आव दि सिक्सटीन जैन महाविद्याज", जर्नल इण्डियन सोसायटी आफ ओरियंटल आर्ट, खंड-१५. १९४७, पृ० ११४-७७। २. ग्रंथ में महाज्वाला नाम की महाविद्या का अनुल्लेख है और मानसी नाम से वर्णित माहविद्या संयुक्त रूप से मानसी और महाज्वाला दोनों की विशेषताओं से युक्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002076
Book TitleKhajuraho ka Jain Puratattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherSahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
Publication Year1987
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Art, & Statue
File Size10 MB
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