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खजुराहो का जैन पुरातत्त्व त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र तथा अन्य ग्रन्थों में अनेक विद्यादेवियों के नामोल्लेख मिलते हैं । ' सर्वप्रथम बप्पभट्टिसूरि की चतुर्विंशतिका ( ७४३ - ८३८ ई० ) में ही तीर्थंकरों के साथ यक्षियों के स्थान पर विद्याओं, सरस्वती एवं कुछ उदाहरणों में यक्षियों के स्वरूप निरूपित हुए हैं । अनेक विद्याओंमें से १६ प्रमुख विद्याओं को लेकर १६ महाविद्याओं की सूची बनी । १६ महाविद्याओं की प्रारम्भिक सूची तिजयपहुत्ति ( मानवदेवसूरि कृत, ९ वीं शती ई० ), संहितासार ( इन्द्रनन्दी कृत, ९३९ ई०) एवं स्तुतिचतुर्विंशतिका ( या शोभनस्तुति, शोभनमुनि ल० ९७३ ई० ) में उपलब्ध है । महाविद्याओं के लाक्षणिक स्वरूप सर्वप्रथम नवीं - १० वीं शती ई० में नियत हुए । बप्पभट्टि की चतुर्विंशतिका और शोभनमुनि की स्तुतिचतुर्विंशतिका में महाविद्याओं के लाक्षणिक स्वरूपों के प्रारम्भिक उल्लेख मिलते हैं । ल० आठवीं शती ई० के अन्त या नवीं शती के पूर्वार्द्ध से इन महाविद्याओं को मन्दिरों पर भी आकारित किया गया, जिसके प्रारम्भिक उदाहरण ओसियाँ ( जोधपुर, राजस्थान ) के महावीर एवं खजुराहो के आदिनाथ मन्दिरों पर हैं ।
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मध्ययुग में राम और कृष्ण के अतिरिक्त भरत और बाहुबली के भी विस्तृत उल्लेख प्राप्त होते हैं । देवगढ़, बिल्हरी और खजुराहो के दिगम्बर स्थलों पर इन शलाकापुरुषों को रूपांकित भी किया गया । खजुराहो, देवगढ़ एवं कुछ अन्य स्थलों पर पंचपरमेष्ठी, जैन आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं तथा जिनों के माता-पिता, दिक्पाल, नवग्रह, क्षेत्रपाल, शान्तिदेवी 3, गणेश, ब्रह्मशान्ति एवं कर्पाद्द यक्षों आदि की भी अनेक मूर्तियाँ बनीं ।
१. हरिवंशपुराण २२. ६१–६६ ।
२. जैन ग्रन्थों में आकाश और पाताल को सम्मिलित कर १० दिक्पालों की सूची दी गयी है, किन्तु घणेरव ( राजस्थान ) के महावीर मन्दिर के अतिरिक्त अन्य सभी जैन स्थलों पर १० के स्थान पर केवल आठ दिक्पालों का ही आलेखन हुआ है ।
३. जैन धर्म एवं संघ की संरक्षिकादेवी के रूप में ९वीं - १०वीं शती ई० में श्वेताम्बर स्थलों पर शान्तिदेवी की प्रभूत मूर्तियाँ बनीं। जिन मूर्तियों के सिंहासन पर भी अभय-या वरदमुद्रा, पद्म ( या पुस्तक) और फल से युक्त शान्तिदेवी का अनेकशः अंकन हुआ है। वास्तुविद्या के जिन परिकर लक्षण से सम्बन्धित अध्याय में पद्म धारण करने वाली तथा जिन सिंहासन के मध्य में आसीन देवी को आदिशक्ति नाम दिया गया है ( २२. १०-१२ ) ।
खजुराहो की भी कुछ जिन मूर्तियों में सिंहासन के मध्य में शान्तिदेवी निरूपित हैं । ४. गणेश केवल श्वेताम्बर स्थलों पर ही रूपांकित हुए | जैन गणेश की लाक्षणिक विशेषताएँ
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पूरी तरह ब्राह्मण गणेश से प्रभावित हैं । गजमुख एवं लम्बोदर तथा मूषक पर आरूढ़ गणेश के करों में अभय और वरदमुद्रा, स्वदन्त, परशु, मोदकपात्र, पद्म एवं अंकुश दिखाये गये हैं । ओसियाँ की देवकुलिकाओं तथा कुम्भारिया के नेमिनाथ मन्दिर पर गणेश की कई मूर्तियाँ हैं ।
ब्रह्मशान्ति और कर्पा, यक्षों का निरूपण केवल श्वेताम्बर ग्रन्थों में ही हुआ है । सम्भवतः इसी कारण दिगम्बर स्थलों पर इनकी मूर्तियाँ नहीं बनीं ।
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