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जैन देवकुल
२४ तीर्थंकरों एवं अन्य शलाका पुरुषों के साथ ही २४ तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षी युगलों, १६ महाविद्याओं, नवग्रहों, अष्टदिक्पालों, क्षेत्रपाल, गणेश, सरस्वती, लक्ष्मी, शान्तिदेवी, ६४ योगिनी, ब्रह्मशान्ति एवं कपदि यक्षों, बाहुबली, भरत चक्रवर्ती तथा जिनों के माता-पिता का निरूपण हुआ।'
ल० आठवीं-नवीं शती ई० तक २४ तीर्थंकरों के लांछन निर्धारित हुए, जिनकी प्राचीनतम सूची तिलोयपण्णत्ति एवं प्रवचनसारोद्धार में उपलब्ध हैं।२ मूर्तियों में तीर्थंकर-लांछन का अंकन गुप्तकाल में प्रारम्भ हुआ जिसके प्रारम्भिक उदाहरण राजगिर ( नेमिनाथ मूर्ति ) और वाराणसी (महावीर मूर्ति, भारत कला भवन, वाराणसी, क्रमांक १६१) में हैं । आठवीं शती ई० के बाद से तीर्थंकर मूर्तियों के साथ लांछनों का नियमित अंकन होने लगा।
___ ल० छठी शती ई० में तीर्थंकरों के साथ शासनदेवताओं के रूप में यक्ष-यक्षी युगलों को सम्बद्ध किया गया । यक्ष-यक्षी तीर्थंकरों के सेवक और उपासक देव हैं, जो जिनसंघों की रक्षा करते हैं। तीर्थकर मूर्तियों में यक्ष-यक्षी का निरूपण छठी शती ई० में प्रारम्भ हुआ, जिसका प्रारम्भिकतम उदाहरण अकोटा की ऋषभ मूर्ति ( बड़ौदा संग्रहालय ) है ।" इस मूर्ति में यक्ष और यक्षी सर्वाल ( सर्वानुभूति या कुबेर ) और अम्बिका हैं। ल० आठवीं-नवीं शती ई० तक २४ तीर्थंकरों के स्वतन्त्र यक्ष-यक्षी युगलों की सूची भी बन गयी तथा ११ वीं-१२ वीं शती ई० में उनके लक्षण निश्चित हुए । जैन स्थलों पर केवल यक्षियों के हो सामूहिक अंकन के उदाहरण हैं । ये उदाहरण केवल दिगम्बर स्थलों पर ही मिलते हैं । २४ यक्षियों की सामूहिक मूर्तियों के उदाहरण देवगढ़ (ललितपुर, उ०प्र०) के शान्तिनाथ मन्दिर (मन्दिर-१२, ८६२ ई०) एवं खण्डगिरि (पुरी, उड़ीसा) की बारभुजी गुफा (११वीं-१२वीं शती ई०) में हैं । मध्यप्रदेश में सतना स्थित पतियानदाई मन्दिर की अम्बिका मूर्ति ( ११ वीं शती ई० ) के परिकर में भी २४ यक्षियों को आकृतियाँ बनी हैं।' देवगढ़ और पतियानदाई के उदाहरणों में यक्षियों की आकृतियों के नीचे उनके नाम भी उत्कीर्ण हैं, जो अधिकांशतः दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों से साम्य रखते हैं।
यक्ष-यक्षियों के बाद विद्यादेवियों को जैनकला में सर्वाधिक महत्व मिला । आगम ग्रन्थों एवं पउमचरिय में विद्यादेवियोंके प्रारम्भिक उल्लेख हैं। वसुदेवहिण्डी, हरिवंशपुराण (७८३ ई०), १. केवल देवताओं के प्रतिमालाक्षणिक स्वरूपों और कभी-कभी नामों के सन्दर्भ में भिन्नता
दृष्टिगत होती है। २. तिलोयपण्णत्ति ४.६०४-०५: प्रवचनसारोद्धार ३८१-८२ । ३. शाह, यू० पी०, "इंट्रोडक्शन ऑफ शासनदेवताज इन जैन वशिप', प्रोसीडिंग्स ऐण्ड
ट्रान्जेक्शन ओरियन्टल कान्फ्रेंस, २० वाँ अधिवेशन, १९६८, पृ० १४१-४३ । ४. हरिवंशपुराण ६५. ४३-४५; तिलोयपण्णत्ति ४. ९३६ । ५. शाह, यू० पी०, अकोटा ब्रोन्जेज, बम्बई, १९५९, पृ० २८-२९ । ६. तिलोयपण्णत्ति, कहावली एवं प्रवचनसारोद्धार । ७. निर्वाणकलिका, विशष्टिशलाकापुरुषचरित्र एवं प्रतिष्ठासारसंग्रह (दिगम्बर )। ८. यह मूर्ति सम्प्रति इलाहाबाद संग्रहालय में है ।
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