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इन ग्रंथों के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में अनेक तीर्थमालायें एवं चैत्यपरिपाटियाँ लिखी गईं जो कि तीर्थ सम्बन्धी साहित्य की महत्त्वपूर्ण अंग हैं। ये अधिकांशतः परवर्ती अपभ्रंश एवं प्राचीन मरु-गुर्जर में लिखी गई हैं । इन तीर्थ मालाओं और चैत्यपरिपाटियों की संख्या शताधिक है और ये ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं-अठारवीं शताब्दी तक निर्मित होती रही हैं। इन तीर्थमालाओं तथा चैत्यपरिपाटियों में कुछ तो ऐसी हैं जो किसी तीर्थ विशिष्ट से ही सम्बन्धित हैं और कुछ ऐसी हैं जो सभी तीर्थों का उल्लेख करती हैं। ऐतिहासिक दष्टि से इन चैत्य परिपाटियों का अपना महत्त्व है, क्योंकि ये अपने-अपने काल में जैन तीर्थों की स्थिति का सम्यग विवरण प्रस्तुत कर देती हैं। इन चैत्यपरिपाटियों में न केवल तीर्थक्षेत्रों का विवरण उपलब्ध होता है, अपितु वहाँ किस-किस मन्दिर में कितनी पाषाण और धातु की जिन प्रतिमाएँ
खंडिल-डिंडूआणय नराण-हरस उर खट्टऊदेसे । नाग उर मुग्विदंतिसु संभरिदेसंमि वंदेमि ॥२४।। पल्ली संडेरय नाणएमु कोरिट-भिन्नमाल्लेलेसु । वंदे गुज्जरदेसे आहाडाईसु मेवाडे ॥२५॥ उपएस किराडए वि जयपुराईसु मरुमि वंदामि । सच्चउर-गुडुरायसु पच्छिमदेसंमि वंदामि ॥२६॥ थाराउद्दय-बायड-जालीहर-नगर-खेड-मोढरे । अण हिल्लवाडनयरे वड्डावल्लीयं बंभाणे ॥२७॥ निहयकलिकालमहियं सायसतं सयलवाइथंभणए । थंभणपुरे कयवासं पासं वंदामि भत्तीए ॥२८॥ कच्छे भरुयच्छंमि य सोरट्ठ-मरहट्ठ-कुंकण-थलीसु । कलि कुण्ड-माणखेडे दक्षि (क्खि) ण देसंमि वंदामि ।।२९।। धारा-उज्जेणीसु य मालवदेसंमि वंदामि । वंदामि मणुयविहिऐ जिणभवणे सव्वदेसेसु ॥३०॥ भरहयि (म्मि) मणुयविहिया महिया मोहारिमहियमाहप्पा । 'सिरिसिद्धसेणसूरीहिं संथुया सिबसुहं देंतु ॥३२॥ -Discriptive Catalogue of Mss in the Jaina Bhandars at Pattan-G.O.S. 73, Baroda 1937 p. 56
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