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दक्षिण भारत के अंत ती
लेखों में से एक शिलालेख यहीं से प्राप्त हुआ है ।" शक क्षत्रप उषादात के एक अभिलेख में इस नगरी की चर्चा है । एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र और बन्दरगाह होने के कारण भी इसका बड़ा महत्त्व रहा । यहाँ बहुत से व्यापारी निवास करते थे और व्यापार के लिये भृगुकच्छ और सुवर्णभूमि तक जाते थे ।
मध्यकालीन जैन साहित्य में इस नगरी का एक जैन तीर्थ के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है । जैन परम्परानुसार आचार्य नागेन्द्रसूरि, चन्द्रसूरि, निवृत्तसूरि और विद्याधरसूरि का यहाँ जन्म हुआ था, इसीलिये यह नगरी जैन तीर्थं के रूप में प्रसिद्ध हुई । आचार्य वज्रसेन, आर्य समुद्र और आर्य मंगु ने यहाँ विहार किया था । ५
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सिद्धसेनसूरि द्वारा रचित सकलतीर्थस्तोत्र ( १०६७ ई० सन् ) में कोंकण देश का जैन तीर्थ के रूप में उल्लेख मिलता है । चूंकि इस देश ( कोंकण ) की राजधानी सूर्पारक नगरी थी, अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अप्रत्यक्ष रूप से उक्त उल्लेख इसी नगरी के लिये प्रयुक्त हुआ होगा ।
पुरातनप्रन्बधसंग्रह ' ( प्रति बी०, तिथि वि०सं० १५०० लगभग ) और प्रबन्धकोश' (वि०सं० १४०५ ) में यहाँ जीवन्त स्वामी ऋषभदेव के जिनालय होने का उल्लेख है । मुनिप्रभसूरि द्वारा रचित " अष्टोत्तरीतीर्थमाला” ( १४वीं शती वि० सं०), विनयप्रभउपाध्याय कृत तीर्थयात्रास्तवन' (१४वीं शती वि०सं०) और मेघाकृत तीर्थमाला ( १५वीं शती वि०सं०) आदि में भी यहाँ स्थित जीवन्तस्वामी ऋषभदेव १. माथुर, विजयेन्द्र कुमार - ऐतिहासिक स्थानावली, पृ० ९०६ - ९०७ । २ . वही, पृ० ९०६ ।
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३. जैन, जगदीशचन्द्र - पूर्वोक्त, पृ० ६५ ॥
४. त्रिपुटी महाराज – जैनपरम्परानो इतिहास, खंड २, पृ० ३३७ ।
५. जैन, जगदीशचन्द्र - पूर्वोक्त, पृ० ६५ ॥
६. पत्तनस्थप्राच्य जैनभण्डागारीय ग्रन्थसूची, पृ० १५५-५६ । ७. “कुमारपालदेवतीर्थयात्राप्रबन्ध" पुरातनप्रबन्ध संग्रह, पृ० ४२ । ८. "हेमसूरिप्रबन्ध" प्रबन्धकोश, पृ० ४८
९. जैन सत्यप्रकाश, जिल्द १९, पृ० ६४-६६ ॥
१०. वही, – जिल्द १७, पृ० १५-२२ ॥
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