SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५६ पश्चिम भारत के जैन तीर्थ खिलजी का अधिकार स्थापित हो गया था, उसने अलपखान को यहाँ का शासक नियुक्त किया था और उसी ने यहाँ तोड़फोड़ किया। वि०सं० १३७१ में संघपति समराशाह ने यहाँ के चैत्यों का पुनर्निर्माण कराया, यह बात आम्रदेवसूरि द्वारा रचित समरारासु से ज्ञात होती है। जिनप्रभ ने भी यही यही बात कही है । अपने विवरण के अन्त में उन्होंने बतलाया है कि उन्होंने इस कल्प को भद्रबाहु, वज्रस्वामी और पादलिप्तसूरि द्वारा रचित शत्रुजयकल्प' के आधार पर लिखा है, तथापि उनके विवरण की सभी बातें हमें तपगच्छीय धर्मघोषसूरि द्वारा रचित 'शत्र जयकल्प में विस्तार से प्राप्त होती हैं। 'धर्मघोषसरि को जिनप्रभसूरि से लगभग ४०-५० वर्ष पहले रखा जाता है। अतः यह माना जा सकता है कि जिनप्रभ ने धर्मघोषसूरि द्वारा रचित 'शत्रुजयकल्प' के आधार पर ही यह कल्प लिखा होगा। आज यहाँ पर्वत पर और उसकी तलहटी में अवस्थित पालीताना नगरी में छोटे-बड़े ८०० से अधिक जिनालय हैं। चौलुक्य और वघेल शासकों के समय यहाँ अनेक जिनालयों का निर्माण कराया गया, परन्तु मुसलमानों ने यहाँ के अधिकांश मंदिरों को नष्ट कर दिया। बाद में १५वीं से १९वीं शती तक यहाँ अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया। जिससे सम्पूर्ण पर्वतशृखला और घाटी मंदिरों से ही ढंक गयी है। आज यहाँ जितने अधिक जिनालय हैं उतने अन्यत्र कहीं नहीं हैं । यहाँ के जिनालयों में अनेक प्राचीन प्रतिमायें भी हैं उनमें से कुछ पर लेख भी उत्कीर्ण हैं । ये लेख वि०सं० १०३४ से लेकर २० वीं शती तक के हैं । १. आगमोद्धार ग्रन्थमाला जिला, खेड़ा ( गुजरात ) द्वारा वि० सं० २०२६ में प्रकाशित। २. प्रो० एम० ए० ढाकी से उक्त सूचना प्राप्त हुई है, जिसके लिये लेखक उनका अभारी है। ३. इन लेखों के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक विवरण के लिये द्रष्टव्य-- (i) शाह, ए० पी०-"सम इन्सकृप्सन्स एण्ड इमिजेज ऑन माउन्ट शत्रुजय''-महावीरजैनविद्यालयसुवर्णमहोत्सवअंक, भाग १, पृ० १६२-१६९ । (ii) ढाकी एम. ए.-"शत्रुञ्यगिरिना केटलाक प्रतिमा लेखो' सम्बोधि जिल्द ७, नं० १-४, पृ० १३-२५ ।। (iii) मुनि, कंचनसागर-शत्रुञ्जयगिरिराजदर्शन इन स्कल्पचर्स एण्ड * आर्किटेक्चर, (प्रका. आगमोद्धारक ग्रन्थमाला, कपडवज, १९८२ ई.)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy