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इसके अतिरिक्त विविधतीर्थं कल्प ( १३वीं शती) और तीर्थं मालायें भी जो कि १२वीं - १३वीं शताब्दी से लेकर परवर्ती काल में पर्याप्त रूप से रची गयीं; तीर्थों की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं । जैन साहित्य में तीर्थयात्रा संघों के निकाले जाने सम्बन्धी विवरण भी १३वीं शती के पश्चात् रचित अनेक तीर्थमालाओं एवं अभिलेखों में यत्र-तत्र मिल जाते हैं, जिनकी चर्चा आगे की गयी है ।
तीर्थयात्रा का उद्देश्य न केवल धर्म साधना है, बल्कि इसका व्यावहारिक उद्देश्य भी है, जिसका संकेत निशीथचूर्णी में मिलता है। उसमें कहा गया है कि जो एक ग्राम का निवासी हो जाता है और अन्य ग्राम-नगरों को नहीं देखता वह कूपमंडूक होता है । इसके विपरीत जो भ्रमणशील होता है वह अनेक प्रकार के ग्राम नगर, सन्निवेश, जनपद, राजधानी आदि में विचरण कर व्यवहार कुशल हो जाता है तथा नदी, गुहा, तालाब, पर्वत आदि को देखकर चक्षु सुख को भी प्राप्त करता है । साथ ही तीर्थंकरों के कल्याणकभूमियों को देखकर दर्शन विशुद्धि भी प्राप्त करता है । पुनः अन्य साधुओं के समागम का भी लाभ लेता है और उनके समाचारी से भी परिचित हो जाता है । परस्पर दानादि द्वारा विविध प्रकार के घृत, दधि, गुड़, क्षीर आदि नाना व्यंजनों का रस भी ले लेता है । '
निशीथचूर्णी के उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार्य तीर्थयात्रा की आध्यात्मिक मूल्यवत्ता के साथ-साथ उसकी व्यावहारिक उपादेयता भी स्वीकारते थे ।
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अहाव - तस्स भावं नाऊण भणेज्जा - 'सो वत्थब्वो एगगामणिवासी कूव मंडुक्को इव ण गामणगरादी पेच्छति । अम्हे पुण अणियतवासी, तुमं पि अम्हेहिं समाणं हिंडतो णाणाविध-गाम-णगरागर- सन्निवेस
यहाणि जाणवदेय पेच्छंतो अभिधाणकुसलो भविस्ससि, तहा सरवाविवपिणि-दि-कूल तडाग काणणुजाण कंदर-दरि-कुहर-पव्वते य णाणाविह रुक्खसोभिए पेच्छंतो चक्खुसुहं पाविहिसि, तित्थकराण य तिलोग पूइयाण जम्मण-णिक्खण-विहार — केवलुप्पाद - निव्वाणभूमीओ य पेच्छतो दंसणसुद्धि काहिसि' तहा अण्णोष्ण साहुसमागमेण य सामायारिकुसलो भविस्ससि, सव्वापुव्वे य चेइए वंदतो बोहिलाभं निज्जित्तेहिसि, अण्णोष्ण-सुय दाणाभिगमसड्ढ े सु संजमाविरुद्धं विविध-वं जणोववेयमण्यं घय - गुल- दधि-क्षीरमादियं च विगतिवरिभोगं पाविहिसि ।।२७१६।। - निशीथचूर्णी, भाग ३, पृ० २४, प्रकाशक - सन्मतिज्ञानपीठ, आगरा
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