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पश्चिम भारत के जैन तीर्थ
और रतन ने स्थापित किया था। इस प्रकार स्पष्ट है कि १०वीं शती तक यह तीर्थ दिगम्बरों के अधिकार में था, बाद में यहाँ श्वेताम्बरों का आधिपत्य स्थापित हो गया।
सिद्धराज द्वारा सौराष्ट्रविजय का उल्लेख निम्नलिखित ग्रन्थों में भी पाया जाता है -
१-सिद्धहैमव्याकरण-पुरातत्त्व (गुजराती ) जिल्द IV पृ. ६७ २-कीर्तिकौमुदी ३---प्रबन्धचिन्तामणि ४-पुरातनप्रबन्धसंग्रह
कीर्तिकौमुदी ( २/२५ ) के अनुसार जयसिंह ने खेंगार को उसी प्रकार मार डाला जिस प्रकार से सिंह हाथी को मार डालता है
अपारपौरुषोद्गारं खङ्गारं गुरुमत्सरः ।
सौराष्ट्र पिष्टवानाजौ, करिणं केसरीव यः । पुरातनप्रबन्धसंग्रह में भी खङ्गार को ही सौराष्ट्र का शासक बतलाया गया है, जिसे जयसिंह सिद्धराज ने हराकर मार डाला। प्रबंचितामणि में उक्त शासक का नाम नवघन बतलाया गया है। उसके अनुसार जयसिंह ने अपनी सेनाको नवघन द्वारा ११ बार परास्त हो जाने पर १२ वीं बार स्वयं उसपर चढ़ाई की और उसे हराकर मार डाला, तत्पश्चात् सज्जन को वहाँ का दण्डनायक नियुक्त किया। अन्य ग्रन्थों में खङ्गार को सौराष्ट्र का शासक बतलाया गया है, वहीं प्रबन्धचितामणि में नवघन का नाम आता है। नवघन खङ्गार का दादा था, अतः प्रबन्धचिन्तामणिका उक्त नामोल्लेख भ्रामक है।
कल्पप्रदीप में दण्डनायक सज्जन द्वारा वि० सं० ११८५ में नेमिनाथ जिनालय के निर्माण की बात कही गयी है। उक्त जिनालय में उत्कीर्ण वि०सं० ११७६/ई० सन् ११२० के सज्जन के एक लेख के आधार पर भगवानलाल इन्द्रजी ने कल्पप्रदीप के उक्त तिथि को भ्रामक बतलाया है । परन्तु कल्पप्रदीप की तिथि का समर्थन रैवन्तगिरिरासु' में भी किया गया है. ---- १. ढाकी, पूर्वोक्त पृ० १७ २. "सज्जनकारितरैवततीर्थोद्धारप्रबन्ध' पुरातनप्रबन्धसंग्रह, पृ० ३४ ३. "सिद्धराजप्रबन्ध" प्रबन्धचिन्तामणि (संपा० जिनविजय), पृ० ६४-६५
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