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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
२१७ मरुदेवी के प्रासाद निर्मित कराये । तेजपाल ने ३ कल्याणक चैत्य बनवाया। देपाल मन्त्री ने इन्द्रमंडप का उद्धार कराया।"
जिनप्रभसूरि द्वारा अजित और रतन के सम्बन्ध में उल्लिखित कथानक हमें निम्नलिखित ग्रन्थों में भी प्राप्त होता है१-रेवंतगिरिरासु' ( नागेन्द्रगच्छीय विजयसेनसूरि, रचनाकाल
१२२३ ई० ) २ -प्रबन्धकोश' ( राजशेखर, रचनाकाल, १३४८ ई०) ३–पुरातनप्रबन्धसंग्रह ( प्रति-पी०, रचनाकाल १४-१५वीं ई०)
प्रबन्धकोश में अजित और रतन के स्थान पर उनके भाई मदन और पूर्णसिंह का नाम दिया गया है । कल्पप्रदीप, रेवन्तगिरिरासु और प्रबन्धकोश में घटना की तिथि नहीं दी गयी है जबकि पुरातनप्रबन्धसंग्रह में वि. सं. ९८० में यह कार्य सम्पन्न हुआ बतलाया गया है। अजित और रतन जैन धर्म के किस सम्प्रदाय से सम्बद्ध थे ? चकि इस युग में काश्मीर में श्वेताम्बरों के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं मिलता, जबकि ९वीं शती में यहां दिगम्बरों की उपस्थिति की सूचना मिलती है। अतः इस आधार पर प्रो० एम. ए. ढाकी ने यह विचार व्यक्त किया है कि अजित और रतन संभवतः दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध थे।५ गिरनार पर्वत पर सर्वेक्षण के समय एम. ए. ढाकी और श्रीलक्ष्मणभाई भोजक को भगवान् नेमिनाथ की १०वीं शती की एक सिरविहीन प्रतिमा प्राप्त हुई है। इस प्रतिमा के बारे में उन्होंने यह अनुमान व्यक्त किया है कि यह संभवतः वही प्रतिमा है जिसे अजित १. सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यादिवस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह ( सिंघी जैन ग्रन्थ
माला - नं० ५ ) संपा० मुनि पुण्यविजय, बम्बई, १९६१ ई० । २. "रत्नश्रावकप्रबन्ध" प्रबन्धकोश, पृ० ९३ । ३. "रैवततीर्थप्रबन्ध' पुरातनप्रबन्धसंग्रह, पृ० ९७ ।। ४. शासनचतुत्रिशिका-तीर्थवन्दनसंग्रह ( संपा० विद्याधर जोहरापुरकर )
पृ० ३२ ५. ढाकी, एम. ए. - "उर्जयन्तगिरि एण्ड जिन अरिष्टनेमि' जर्नल ऑफ
इन्डियन सोसाइटी ऑफ ओरियन्टल आर्ट, जिल्द ६ ( १९८२ई० ) पृ० १७
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