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पश्चिम भारत के जैन तीर्थ ४. अश्वावबोधतीर्थ भृगुकच्छ (वर्तमान भरुच) भारतवर्ष की एक सुप्रसिद्ध नगरी और पत्तन के रूप में प्राचीनकाल से प्रतिष्ठित रही है। इसके भरुकच्छ, भारुकच्छ, भरुअच्छ आदि नाम भी मिलते हैं। जैन परम्परानुसार यह नगरी प्राचीनकाल से ही जैन तीर्थ के रूप में मान्य रही है। जिनप्रभसूरि ने कल्पप्रदीप के अन्तर्गत इस तीर्थ का वर्णन किया है, जिसके अन्तर्गत उन्होंने इसकी उत्पत्ति एवं इसके सम्बन्ध में प्रचलित जैन मान्यताओं की चर्चा की है। उनके विवरण की प्रमुख बातें इस प्रकार हैं-- ___ "मुनि सुव्रतस्वामी कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् विचरण करते हुए एक बार प्रतिष्ठानपुरी में एक रात्रि में ६० योजन चलकर राजा जितशत्रु के अश्व को प्रतिबोधित करने के लिए लाट देशान्तर्गत नर्मदा नदी के तट पर स्थित भृगुकच्छ नगरी के कोरंटवन नामक स्थान पर पहुँचे। वहाँ समवशरण में अन्य लोगों के अलावा वह अश्व भी आया। उसने धर्मदेशना सुनी। मुनिसुव्रत ने उसके पूर्वभव का वर्णन किया, जिसे सुनकर उसने अनशन द्वारा अपना शरीर छोड़ा और मरकर देव हुआ। अपना पूर्वभव ज्ञात कर उसने स्वामी का रत्नमय चैत्य बनवाया तथा उसमें अपना अश्वरूप भी स्थापित कराया। इस प्रकार भृगुकच्छ नगरी अश्वावबोधतीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित हुई। कालान्तर में सिंहलद्वीप की राजकुमारी सुदर्शना अपना पूर्वभव ज्ञात कर इसी नगरी में आयी और यहाँ उसने चैत्य का जीर्णोद्धार कराया। पूर्वभव में वह शकुनिका ( शमली) थी, अतः उसके पूर्वभव के नाम पर ही यह जिनालय शकुनिका विहार के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मिथ्यादृष्टि सिन्धवादेवी ने यहाँ प्रासादशिखर पर नृत्य करते हुए आम्रभट्ट पर उपसर्ग किया, जिसे हेमचन्द्राचार्य ने दूर किया ! यहाँ अनेक लौकिक तीर्थ भी विद्यमान हैं।"
कल्पप्रदीप के अतिरिक्त अन्य जैन ग्रन्थों में भी इस तीर्थ के सम्बन्ध में इसी प्रकार का कथानक प्राप्त होता है। ये ग्रन्थ हैं
वादिदेव सूरि कृत स्यादवाद्रत्नाकर' (वि० सं० ११८१) । १. स्यादवादरत्नाकर ( संपा० मोतीलाल लाघजी, पूना, वीरसंवत्
२४५३ ) १।१।२।
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