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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
२० - शंखेश्वर २१ - सिंहपुर ( सिहोर )
२२ -- स्तम्भनक ( थामणा ) २३ - स्तम्भतीर्थ ( खंभात )
१. अर्बुदगिरिकल्प
अगर जैनों का एक प्रसिद्ध तीर्थ है । उत्तरकालीन जैनसाहित्य में इसके बारे में विस्तृत विवरण प्राप्त होता है । यहाँ विमलवसही और लूणवसही नामक दो जिनालय विद्यमान हैं, जो अपनी उत्कृष्ट कला के कारण जगविख्यात हैं। जिनप्रभसूरि ने कल्पप्रदीप के अन्तर्गत इस तीर्थं का उल्लेख किया है और इसके बारे में प्रचलित मान्यताओं, विमलवसही और लूणवसही के निर्माण, विध्वंस एवं पुनर्निर्माण आदि का तिथिक्रमानुसार विवरण प्रस्तुत किया है। उनके विवरण की प्रमुख बातें इस प्रकार हैं
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"पूर्व काल में श्रीरत्नमालनगरी में 'श्रीपुञ्ज' नामक एक राजा राज्य करता था । उसके 'श्रीमाता' नामक एक पुत्री थी, जो वानरमुखवाली थी । श्रीमाता को अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त याद था, जिसे एक दिन उसने अपने पिता से बताया। राजा ने उसे अर्बुदपर्वत पर भेजकर वहाँ स्थित कुण्ड में उसका मुख डुबवाया, जिससे वह नारी के समान मुखवाली हो गयी और वहीं तपश्चर्या करने लगी । एक दिन वहाँ एक योगी ने उसे देखा और उसके रूप-लावण्य पर मुग्ध हो उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा । श्रीमाता ने छल से उसका वध कर दिया और आजन्म अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वह स्वर्गं गयो । तत्पश्चात् राजा ने वहीं उसका एक मन्दिर बनवा दिया । लौकिक धर्म में इस पर्वत का अर्बुद नाम पड़ने के सम्बन्ध में एक कथा प्रचलित है, जिसके अनुसार यह हिमालय का पुत्र था और इसका नाम नन्दिवर्धन था । बाद में अर्बुद नाग का यहाँ अधिष्ठान होने से इसका नाम 'अर्बुदगिरि' प्रचलित हो गया । इस पर्वत पर अनेक सुम्दर-सुन्दर वृक्ष हैं, इनसे बहुत सी औषधियाँ प्राप्त होती हैं । यहाँ वशिष्ठाश्रम, मन्दाकिनी, अचलेश्वर, गोमुखयक्ष आदि लौकिक तीर्थं हैं । वि० सं० १०८८ में मन्त्रीश्वर विमल ने यहाँ 'विमलवसही' का निर्माण
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