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मध्य भारत के जैन तीर्थ
२-ढीपुरीस्तव
अपने विवरण में ग्रन्थकार ने इस तीर्थ की उत्पत्ति, उसके निर्माता और तीर्थ के ख्याति की चर्चा की है। इस सम्बन्ध में उन्होंने वङ्कचल नामक एक राजपुत्र द्वारा, जो अपने दुराचारी प्रवृत्ति के कारण स्वगृह से निष्कासित कर दिया था, एक जैन मुनि द्वारा बताये गये चार व्रतों के पालन करने से प्राप्त सुपरिणामों का सुन्दर वर्णन किया है । उनके विवरण की प्रमुख बातें इसप्रकार हैं
"प्राचीन काल में भारतवर्ष में विमलयश नामक एक राजा राज्य करते थे। उन्हें पुष्पचूल और पुष्पचूला नामक दो सन्तानें थीं। स्व. भाव से अत्यन्त उदृण्ड होने के कारण पुष्पचल को वचल कहा जाने लगा। एक दिन राजा ने उसके बुरे आचरण से तंग आकर उसे महल से निकाल दिया। उसके साथ उसकी बहन पुष्पचला भी स्नेहवश चली गयी। मार्ग में वे भीषण जंगल में पड़ गये और भूख-प्यास से पीड़ित हुए, वहां भीलों ने उनकी प्राण रक्षा की और उन्हें राजपुत्र जानकर अपनी पल्ली में ले आये तथा वङ्कचूल को पल्लीपति का पद प्रदान किया। भीलों के साथ अब वचल भी मार्ग से आने वाले सार्थों को लट कर अपना जीवन यापन करने लगा। एकबार वर्षावास हेतु कुछ जैन मुनि उस पल्ली में आये, जहां वकचल ने उनका स्वागत किया और उन्हें ठहरने की सुविधा प्रदान की। वर्षावास की समाप्ति पर जब मुनिगण जाने लगे, तब उन्होंने वकचल को चार व्रतों को धारण करने का उपदेश दिया। वे चारों व्रत इस प्रकार हैं -
१-अज्ञात फल न खाना, २-आठ हाथ पीछे हटकर वार करना, ३-पटरानी से समागम न करना और ४-कौवे का मांस न खाना। वकचल ने इनका पालन किया। प्रथम व्रत के पालन से उसकी प्राण रक्षा हुई। द्वितीय व्रत के पालन से उसकी पत्नी एवं बहन के प्राण बचे । अब उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा । एक जैन मुनि से आज्ञा लेकर उसने चर्मणवती के तट पर ऊंचे शिखरों वाला एक जिनालय बनवाया और मूलनायक के रूप में उसमें महावीर स्वामी की प्रतिमा स्थापित कर दी। बाद में उसे चर्मणवती नदी के तल से भगवान् पार्श्वनाथ की भी एक प्रतिमा प्राप्त हुई, उसे भी उसने उक्त जिनालय में स्थापित कर दी। उसकी पल्ली, जो पहले सिंहपल्ली के
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