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पूर्व भारत के जैन तीर्थ हुए। इसी प्रकार अरनाथ, मल्लिनाथ, सुव्रतनाथ और नमिनाथ के समय में यहां क्रमशः १२, ६, ३ और १ कोटि मुनि सिद्ध हुए। इसके अलावा अन्य कई कोटि मुनि भी यहाँ सिद्ध हुए, इसीलिए इसका नाम कोटिशिला पड़ा । पूर्वाचार्यों ने इसे दशार्ण पर्वत के समीप स्थित बत. लाया है, परन्तु यह मगध देश में ही स्थित है।"
दिगम्बर परम्परा के ग्रंथ हरिवंशपुराण' - ( जिनसेन, ई० सन् ८वीं शती) में कोटिशिला के संबंध में वही विवरण प्राप्त होता है, जिसका जिनप्रभ ने उल्लेख किया है। अतः उनके कोटिशिलातीर्थ संबंधी विवरण का आधार उक्त ग्रंथ माना जा सकता है।
कोटिशिला की स्थिति के बारे में प्राचीनकाल से ही मतभेद रहा है। जिनप्रभसूरि ने अपने पूर्वाचार्यों के मतों का, जिनके अनुसार यह तीर्थ १. वरष्टभिरिष्टाथैर्सेव्यमानोऽनुवासरम् ।
जितजेयो ययौ कृष्णः स कोटिकशिलां प्रति ।। यतस्तस्यामुदारायामनेका ऋषिकोटयः । सिद्धास्ततः प्रसिद्धात्र लोके कोटिकशिला शिला ।। शिलायां तत्र कृत्वादौ पवित्रायां बलिक्रियाम् ।। दोामुत्क्षिपतिस्मासौ विष्णुस्तां चतुरङ्गुलम् ।। सा शिला योजनोच्छ्राय समायोजनविस्तृता। अर्धभारतवर्षस्थदेवतापरिरक्षिता ॥ तद्बाहुनोर्ध्वमुत्क्षिप्ता त्रिपृष्ठेन शिला पुरा। मूर्द्धदघ्नं द्विपृष्ठेन कण्ठदघ्नं स्यम्भुवा ।। वृक्षोद्वयमुत्क्षिप्ता च पुरुषोत्तमचक्रिणा । क्षिप्ता पुरुषसिंहेन हृदयावधि हारिणी ॥ पुण्डरीक: कटीमात्रमूरुदघ्नं हि दत्तकः । जानुमानं च सौमित्रिः कृष्णोऽधाच्चतुरङ गुलम् ।। प्रधानपुरुषादीनां सर्वेषां हि युगे युगे। भिद्यते कालभेदेन शक्तिः शक्तिमतामपि ।।
हरिवंशपुराण, ५३।३२-३९ पद्मपुराण के ४८वें पर्व में तथा उत्तरपराण के ५८वें पर्व में भी इसी प्रकार का विवरण है।
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