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उत्तर भारत के जैन तीर्थं निर्मितवोद्दस्तूप ऐसा नाम (उक्त स्तूप का ) दिया गया है।' अर्थात् इस समय तक लोग इसके वास्तविक निर्माता को भूल गये थे और उसे देवों द्वारा निर्मित मानने लगे थे । २ १६ वीं - १७ वीं शताब्दी के तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ के अनुसार मौर्यकला, यक्षकला कहलाती थी और इससे पूर्व की कला देवनिर्मित । इस आधार पर कुछ विद्वानों ने इस स्तूप को ५वीं- ६ठीं शती ईसापूर्व का माना है । परन्तु यहाँ से प्राप्त अभिलेखों के आधार पर इसे ईसापूर्व दूसरी शती के पहले का नहीं माना जा सकता |
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श्वेताम्बर जैन साहित्य में कालवेशिक मुनि, राजर्षिशंख ५, आर्य मंगु, आर्य रक्षित, " साध्वी कुबेरा, मिथ्यादृष्टि पुरोहित इन्द्रदत्त', वसहपुष्यमित्र, घृतपुष्यमित्र, दुर्बलिकपुष्यमित्र, १० श्रेष्ठी जिनदत्त, " श्रावक सुरेन्द्रदत्त १२ और उसकी पत्नी राजविध आदि के बारे में विस्तृत विवरण प्राप्त होता है । परम्परानुसार ये मथुरा नगरी से सम्बन्धित थे । जिनप्रभसूरि द्वारा 'मथुरापुरीकल्प' के अन्तर्गत इनका नामोल्लेख करना स्वाभाविक ही है ।
ग्रन्थकार ने इस नगरी के ५ लौकिक तीर्थों, ५ स्थलों एवं १२ वनों का जो नामोल्लेख किया है, उनके बारे में ब्राह्मणीय परम्परा १. विजयमूर्ति पं० - जैनशिलालेखसंग्रह, भाग २, लेखाङ्क ५९ |
२. चौधरी, गुलाबचन्द्र - पूर्वोक्त, पृ० ८ ।
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३. वही, पृ० ८ ।
४. मेहता और चन्द्रा - पूर्वोक्त, पृ० १७२ ।
५. वही, पृ० ५९० ।
६. वही, पृ० ५९० ।
७. वही, पृ० ५९० तथा ६१६ ।
८. जैन साहित्य में अन्यत्र साध्वी कुबेरा का उल्लेख नहीं मिलता, केवल जिनप्रभसूरि ने अपने विवरण में कुबेरा को यहां स्तूप निर्मित करने
का श्रेय दिया है ।
९. मेहता और चन्द्रा – पूर्वोक्त, पृ० ५९० ।
१०. वही, पृ० ४७९ ।
११. वही, पृ० २८५ । १२ . वही, पृ० ८३६ ।
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