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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन स्वाभाविक रीति से वैदिक देवताओं के साथ अन्य लोक देवताओं का अनौपचारिक उल्लेख पाया जाता है। इस सूची में जहां अग्नि, इन्द्र, बृहस्पति, वरुण, विष्णु आदि वैदिक देवता हैं वहीं दूसरी ओर यक्ष, राक्षस, भूत, सर्प आदि उस कोटि के भी देवता हैं जिनका आदिम-जातियों से सम्बन्ध था।' भूमि, पर्वत, नदी, समुद्र और नक्षत्र ये भूमि सम्बन्धी देवता थे, जिनकी परम्परायें लोक और साहित्य में प्राप्त होती हैं । महाभारत, गीता और पुराणों आदि में देवी-देवताओं की विस्तृत सूची प्राप्त होती है जिनमें लोक में प्रचलित देवी देवताओं की भी गणना है । २
सूत्रों एवं मनु तथा याज्ञवल्क्य आदि प्राचीन स्मृतियों में तीर्थों को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है अपितु यज्ञों की महिमा बतलाई गयी है। इसके विपरीत महाभारत एवं पुराणों में तीर्थ यात्रा के महत्त्व को बतलाते हुए उन्हें यज्ञों की तुलना में श्रेष्ठ बतलाया गया है।३ महाभारत में तीर्थों के नाम एवं उनकी यात्रा पर जाने का भी वर्णन मिलता है। मत्स्य, नारदीय, पद्म, वाराह आदि पुराणों में तो तीर्थों के माहात्म्य के साथ-साथ उनकी संख्या भी गिनाई गयी है। मत्स्यपुराण के अनुसार ३५ कोटि तीर्थ हैं, जो आकाश एवं भूमि पर स्थित हैं । ब्रह्मपुराण के अनुसार तीर्थों एवं पुनीत स्थलों की संख्या इतनी बड़ी है कि उन्हें सैकड़ों वर्षों में भी नहीं गिना जा सकता। समयसमय पर नये-नये तीर्थों को पुराणों में शामिल कर लिया गया और तीर्थपुरोहितों ने धन लाभ की कामना से प्रेरित होकर संदिग्ध प्रमाणों से युक्त बहुत से माहात्म्यों को रच कर इन्हें महाभारत के प्रसिद्ध रचयिता व्यास से सम्बन्धित बतलाया।" इस प्रकार स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणीय परम्परा में वैदिक युग के प्रारम्भ से ही पवित्र स्थानों का तीर्थों के रूप में उदय हुआ और उनका पूर्ण विकसित स्वरूप हमें महाभारत तथा पुराणों में दिखाई देता है। १. अग्रवाल, वासुदेवशरण, पूर्वोक्त, पृ० ४ । २. वही, पृ० ५-१९ । ३. काणे, पी० वी०-पूर्वोक्त-पृ० १३०६ । ४. वही, पृ० १३०६ । ५. वही, पृ० १९।
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