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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] [ ८३३ इस प्रकार लगभग १० वर्ष तक लोंकाशाह गुजरात के बादशाह मोहम्मदशाह की सेवा में रहे । “गुजरात नो संक्षिप्त इतिहास" नामक अपनी कृति में श्री र. म. नीलकण्ठ के उल्लेखानुसार-वि. सं. १५०७ के पास-पास के किसी समय में गुर्जरेश मोहम्मदशाह ने चापानेर के रावल गंगादास पर आक्रमण कर पांवागढ़ के चारों ओर घेरा डाला । यह समाचार सुनते ही मालवे के सुलतान ने एक शक्तिशाली सेना ले गंगादास की सहायतार्थ पावागढ़ की ओर कूच किया। अपनी विशाल वाहिनी के साथ मालवे के सुलतान के आगमन की बात सुनकर मोहम्मदशाह भयभीत होकर पावागढ़ का घेरा उठा अपनी सेना के साथ अहमदाबाद की प्रोर भाग खड़ा हा। मोहम्मदशाह के इस कायरता पूर्ण पलायन से रूष्ट हो उसके. ही अमीरों ने विष देकर उसे मार डाला और उसके पुत्र कुतुबशाह को अहमदाबाद के राजसिंहासन पर आसीन किया। इस प्रकार की षड्यन्त्रपूर्ण राजनीति से लोकाशाह का अन्तर्मन बड़ा खिन्न और क्षुब्ध हुआ। उनके अन्तःकरण में पूर्व से ही अंकुरित विरक्ति के अंकुर ने इस प्रकार के खेद एवं क्षोभ की ऊष्मा पा तत्काल वट वृक्ष का रूप धारण कर लिया। आत्मकल्याण के अटल संकल्प के साथ उन्होंने शाही-सेवा से त्याग पत्र दे दिया। अहमदाबाद के सद्यः सिंहासनासीन शाह के प्राग्रहपूर्ण अनुरोध और उसके द्वारा दिये गये वेतनवृद्धि, पदवृद्धि आदि प्रलोभनों के उपरान्त भी शाही सेवा से निवृत्त हो लोकाशाह अपनी धर्मपत्नी एवं अपने पुत्र के साथ पाटण पहुंचे और एक अच्छा सा गृह लेकर वहां रहने लगे। उनका अन्तर्मन, रोम-रोम, कभी न उतरने वाले वैराग्य के प्रगाढ़ रंग में रंजित हो चुका था। अपनी अर्धांगिनी और पुत्र पूनम चन्द की येन-केन-प्रकारेण अनुज्ञा प्राप्त कर लोंकाशाह ने उस समय पाटण में विराजित सुमति विजय जी के पास वि. सं. १५०९ में यति-धर्म की दीक्षा ग्रहण की। गुरु ने उनका नाम लक्ष्मी विजय रखा। अपने गुरु से उन्होंने प्रागमों का अध्ययन किया। आगमों के अध्ययन से जब उन्हें धर्म के आगम प्रतिपादित वास्तविक एवं विशुद्ध मूल स्वरूप का बोध हुआ तो उन्होंने सुमति विजयजी का साथ छोड़कर लोगों के समक्ष आगमों पर व्याख्यान देते हुए धर्म के वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डालना प्रारम्भ किया। इस प्रकार लोकाशाह ने अहमदाबाद पाटण आदि बड़े-बड़े तथा अनेक छोटे बड़े नगरों और ग्रामों में घूम घूम कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमरण भगवान् द्वारा प्ररूपित विशुद्ध आगमिक धर्म का प्रचार किया। जनमत लोंकाशाह के उपदेशों से जागृत हुआ और उनके अनुयायियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली गई । अनेक यति भी उनके अनुयायी बनकर उनके साथ रहने लगे । अनेक वर्षों तक लक्ष्मी विजयजी (लोकाशाह) विशुद्ध धर्म का प्रचार करते रहे। वि. सं. १५१०-३१ के पास-पास एक समय परहटवाड़ा, पाटण, सूरत मादि चार नगरों के संघ जो तीर्थयात्रा के लिए निकले थे, संयोगवशात् अहमदाबाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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