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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] [ ७६१ अथवा दशपूर्वधरों द्वारा द्वादशांगो से नियंढ़ आगमों के मून पाठ के माध्यम से जनजन को दिग्दर्शन कराया। आगमों में प्रतिपादित विश्वकल्याण के, स्व तथा पर के लिए सर्वथा निश्रेयसकारी मुक्ति के पथ से भटके हुए जैन धर्मावलम्बियों को, तत्कालीन जैन संघ के कर्णधार बने धर्माध्यक्षों को, सूत्रों के मूल पाठ उनके समक्ष प्रस्तुत करते हुए विनम्र शब्दों में यही कहा कि धर्मतीर्थ के प्रवर्तक श्रमण भगवान महावीर ने तो प्रात्मकल्याण का, स्व-पर कल्याण का, भयावहा भवाटवी से बाहर निकलने का, अनन्तानन्त दारुण दुःखों से ओतप्रोत संसार-सागर को पार करने का इस सूत्र में यह पथ प्रदर्शित किया है, यह मार्ग बताया है । चतुर्विध संघ के आप सदस्यगरण सर्वज्ञ-सर्वदर्शी प्रभु द्वारा प्रदर्शित पथ से भिन्न पथ पर विपरीत दिशा में उन्मार्ग पर चल कर कहां पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं ? आज आप जिस पथ पर अग्रसर हो रहे हो त्वरित गति से बढ़े चले जा रहे हो, वह मार्ग तो पाताल में गिराने वाला-रसातल में पहुंचाने वाला है। "डाह्या होइ विचारी जोज्यो' अर्थात् विवेक का उपयोग कर सावधान हो विचारो-देखो और तत्पश्चात् निर्णय करो कि आपको जगद् के बन्धु विश्व हितंकर तीर्थंकर प्रभु द्वारा प्रदर्शित विश्वकल्याणकारी-स्व-पर हितकारी पथ पर अग्रसर होना है अथवा सातशीलत्व के वशीभूत स्वार्थान्ध बने शिथिलाचारी द्रव्योपार्जनरत द्रव्य परम्पराओं के कर्णधारों के चरण-चिन्हों का अनुगमन करते हुए घोर अन्धकारपूर्ण रसातल में पहुंचाने वाले मार्ग पर ; इन दोनों मार्गों में से एक मार्ग, चतुर बन कर चुनो बस यही तो कहा लोकाशाह ने । इससे अधिक कुछ कहा हो, हठाग्रह किया हो, किसी का हाथ पकड़ कर उसे कुपथ पर न बढ़ने के लिए वर्ष, मास, दिवस की बात तो दूर निमेशार्द्ध के लिए भी रोक रखा हो तो, कोई एक उदाहरण ही बता दीजिए। बस इसके लिए लोंकाशाह को-लुम्पक, लुंगा, धर्म लोपक आदि अशोभनीय सम्बोधनों से सम्बोधित किया गया और लोंकाशाह के माता-पिता तक पर कीचड़ उछाल कर संसार के समक्ष अपना नितान्त निम्नस्तरीय चित्र प्रकट कर दिया। कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास ने भी तो अनेक सहस्र वर्ष पूर्व यही कहा था : अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनं द्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीड़नम् ।। श्री वेदव्यास ने तो स्वयं द्वारा निर्मित १८ पुराणों का सार प्रकट करते हुए उपर्युक्त श्लोक के माध्यम से संसार के समक्ष अपना यह अभिमत प्रकट किया था कि यदि कोई व्यक्ति जन्म-मरण के महापाश से विमुक्त हो सच्चिदानन्दघन स्वरूप को, “यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धामं परमं मम ," उस परमधाम मोक्षधाम को प्राप्त करना चाहता है तो दूसरों का भला करे, संसार के प्राणिमात्र के प्राणों की रक्षा करे और इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति अनन्त-अनन्तकाल तक भयावहा भवाटवी में, नरक पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि योनियों में भटकते रहने का इच्छूक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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