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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
. लोकाशाह और उनकी धर्मक्रान्ति के विरुद्ध तत्कालीन धर्माध्यक्षों द्वारा रचे गये षड्यन्त्रों के जाल की यहीं इतिश्री नहीं हो गई। सभी प्रकार के सावध (पापपूर्ण) योगों (कार्यों) का तिविहं तिविहेणं (तीनों करण और तीनों योगों से) जीवन पर्यन्त त्याग करने के शास्त्रीय पाठ के उच्चारण के साथ पंच महाव्रतों की दीक्षा ग्रहण कर लेने के अनन्तर भी विभिन्न गच्छों के जो प्राचार्य, जो धर्माध्यक्ष अध्यात्म प्रधान जैन धर्म के विशुद्ध स्वरूप में अपने पूर्वाचार्यों द्वारा प्रविष्ट कराई गई विकृतियों के माध्यम से पूजा, प्रतिष्ठा, प्रतिमा विवाह, चन्दन बाला के तपव्याज के उपलक्ष्य में सोने चांदी के सूप (छाजला), सोने चांदी के उड़द, सोने चांदी की बेड़िया-हथकड़ियां आदि बनवाकर भेंट स्वरूप प्राप्त करने में, खीर से स्वर्ण रौप्य निर्मित पात्र भरवा कर और उस पायस (खीर) में सोने-चांदी के मोटे-मोटे पत्रों की थरकरण तिरवा कर दान स्वरूप ग्रहण करने में, बहीवट के माध्यम से अथवा विविध आडम्बरपूर्ण असाधुजनोचित अनागमिक विधि-विधानों के माध्यम से विपुल धन व अपरिमित परिग्रह बटोरने में अहर्निश निरत रहते थे, उन की आय लोंकाशाह की धर्मक्रान्ति के फलस्वरूप अवरुद्ध हो गई थी। इससे कुपित होकर उन धर्माध्यक्षों ने, उनके आश्रितों ने लोकाशाह की अनार्योचित असभ्य भाषा में कटु से कटुतम आलोचना निन्दा-गर्दा करने में किसी तरह की कोर-कसर नहीं रखी। इस प्रकार के निहित स्वार्थ लोगों द्वारा लोंकाशाह की निन्दार्थ निर्मित अनेक ऐसी रचनाएं आज भी उपलब्ध होती हैं, जिनको प्रकाश में लाने में लेखिनी भी शर्माती है।
विश्वबन्धु श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित-प्रदर्शित लोक कल्याणकारी. धर्म में द्रव्य परम्पराओं के सूत्रधारों द्वारा किस-किस प्रकार की विकृतियांकिस-किस प्रकार के असाधुजनोचित विकारपूर्ण विधि-विधान घुसेड़ दिये गये-ठूसठूस कर ठसाठस भर दिये गये—उनका उल्लेख प्रसंगवशात् यहां सत्यान्वेषी पाठकों की जानकारी के लिए पागम मर्मज्ञ पार्श्वचन्द्रसूरि के शब्दों में किया जा रहा है । द्रव्यार्जन में संलग्न विभिन्न गच्छों के धर्माध्यक्ष जिस प्रकार लोकाशाह के भयंकर शत्रु बन गये, उसी प्रकार कहीं मेरे (पावचन्द्रसूरि के) भी कट्टर शत्रु-कटु आलोचक न बन जायं इस डर से बहीवट आदि अनेक विकृतियों का नामोल्लेख तक न करते हुए धर्मसंघ की अस्थि-मज्जा में प्रविष्ट कतिपय विकृतियों का विवरण वि० सं० १५७५ की कार्तिक शुक्ला द्वितीया के दिन पट्टन में विराजमान अनेक गच्छाधिपतियों एवं पत्तन श्री संघ को लिखे गये-"उत्सूत्र तिरस्कारनामा-विचार पट:" शीर्षक पत्र के अन्त में प्रस्तुत किया है। उस पत्र की अविकल प्रतिलिपि निम्नलिखित रूप में हैं :
"तथा केतलउं एक सूत्रविरुद्ध असमंजस दीसइ छइ । गच्छे-गच्छे पुण परस्पर विरुद्ध एक मानइं एक न मानइं । ने केटलाएक बोल लिखियेइ छइ । गीतार्थ कहइ तिम प्रमाण । पूछी-पूछी करवउ । छः । छः । श्रीः ।।
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