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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ 1 लोकाशाह [ ७७३ तपागच्छ पट्टावलीकार के शब्दों में भारत के तत्कालीन सम्राट से इस प्रकार के अभूतपूर्व सम्मान को प्राप्त करने के लोभ का संवरण तो कोई विरला अध्यात्म योगी ही कर सकता है । लोंकागच्छ के तथाकथित आचार्य लुकामताधिपति मेघजी ऋषि इस प्रकार के अभूतपूर्व राजकीय सम्मान को, जो उन्हें राजमान्य हीरविजयसूरि के कृपा प्रसाद से मिला, प्राप्त करने के लोभ का संवरण नहीं कर सके और अपने २५ अथवा ३० साधुओं के साथ लोंकागच्छ का परित्याग कर तपागच्छ में सम्मिलित हो गये, यह कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं। प्राचीन पट्टावलियां इस बात की साक्षी हैं कि द्रव्य परम्पराओं के अधिकांश अनगिनत गच्छों का आविर्भाव मान-सम्मान-पूजा-प्रतिष्ठा एवं 'अहं' की तुष्टि के पुट के परिणामस्वरूप हुअा। इस प्रकार का घटना चक्र इस तथ्य का साक्षी है कि लोकाशाह द्वारा बाह्याडम्बर एवं धर्म के स्वरूप में प्रविष्ट विकृतियों के समूलोच्छेदन के लिए अभिसूत्रित सर्वहारा धर्मक्रान्ति के प्रभाव-प्रवाह को क्षीण, अशक्त अथवा निरस्त करने के अभिप्राय से विपुल परिग्रह का त्याग कर प्रानन्दविमलसूरि आदि तीन प्राचार्यों ने शाम-दाम-दण्ड और भेद नीति का आश्रय लेकर जो अभियान चलाया वह निरन्तर पट्टानुपट्ट क्रम से चलता ही रहा । इसी प्रकार के प्रलोभनात्मक शाम-दाम-दण्ड-भेद परक अभियान के परिणामस्वरूप अन्ततोगत्वा लोंकाशाह के विरोधियों को लोंकागच्छ में भयंकर आन्तरिक विस्फोट करने में एक ऐतिहासिक महत्त्व की सफलता प्राप्त हुई। लोंकागच्छ में अान्तरिक विस्फोट करने के लक्ष्य से जिन लोगों को लोकागच्छ में दीक्षित करवाया गया था वे लोग लोंकागच्छ पर छा गये और उन्होंने लोकाशाह द्वारा सूत्रित धर्म क्रांति के मूल मन्त्र से नितान्त विपरीत द्रव्य परम्पराओं की मान्यता "मूर्तिपूजा" को अंगीकार कर अपने आपको लोकाशाह का अनुयायी और लोंकागच्छीय बताते हुए जन-जन के समक्ष यह प्रकट कर दिया कि लोंकागच्छ मूर्तिपूजा की मान्यता को अंगीकार करता है। लोकाशाह द्वारा प्रारम्भ की गई सर्वहारा धर्म क्रान्ति के विरोधियों की यह सबसे बड़ी सफलता थी। अपने क्रमागत अभियान में इस प्रकार की अभूतपूर्व सफलता से उन्होंने संतोष की सांस ली कि अब लोंकागच्छ सदा के लिए समाप्त हो गया। किन्तु लोंकागच्छ में किये गये इस आन्तरिक विस्फोट के अनन्तर भी लोकाशाह द्वारा प्रदीप्त धर्म क्रान्ति की दिव्यज्योति उत्तरोत्तर अधिकाधिक विस्तार पाती हुई जगमगाती ही रही। लोंकागच्छ में किये गये उस आन्तरिक विस्फोट को प्रतिक्रियास्वरूप तत्काल उत्तरार्द्ध लोकागच्छ का आविर्भाव हुआ, लवजी आदि अनेक महापुरुषों ने लोंकाशाह द्वारा प्रदीप्त की गई विशुद्ध आगमिक धर्म की मशाल को देश के कोने-कोने में शतगुणित उत्साह से प्रदीप्त करते हुए उस अभिनव धर्म क्रान्ति के प्रभाव एवं प्रवाह में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि ही की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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