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________________ ७६८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ पश्चाद्वर्ती आचार्यों ने कहा- "वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति ।" बड़े ही युक्तिसंगत एवं हृदयस्पर्शी शब्दों में किसी महामनीषी ने कहा यूपं छित्वा, पशून्हत्वा, कृत्वा रुधिरकर्दम । यद्येवं गम्यते स्वर्गे, नरके केन गम्यते ? ।। जैनधर्म में, जैन संस्कृति में भी धर्म के नाम पर, मुक्ति के नाम पर, स्वर्ग के नाम पर छोटी बड़ी किसी भी प्रकार की हिंसा का प्रवेश कभी कोई निहितस्वार्थ व्यक्ति न कर बठे, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, विश्वेश्वर विश्वबन्धु सभी तीर्थेश्वरों ने और जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र की प्रवर्तमान अवसर्पिणी के चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर ने जैन धर्म में, अपने-अपने धर्मतीर्थ में सभी प्रकार की हिंसा के द्वार सदासदा के लिए बन्द करते हुए फरमाया-"अपने जीवन की रक्षा, मान-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा और यहां तक कि सभी प्रकार के सांसारिक दुःखों से सदा सर्वदा के लिए छुटकारा दिला देने वाली मुक्ति की प्राप्ति के लिए भी कोई मुमुक्षु किसी प्रकार की हिंसा न करे, जिन पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु एवं वनस्पति के एकेन्द्रिय स्थावर जीवों को उनके संघट्ट-स्पर्श मात्र से मरणान्तिकी वेदना होती है उन जीवों की कभी हिंसा न करे। क्योंकि इस प्रकार के स्थावर एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा भी हिंसा करने वाले व्यक्ति के लिए अहितकर एवं अनन्तकाल तक, असह्य दारुण दुःखों से ओतप्रोत संसार में, भयावह भवाटवी में भटकाने वाली है।" अनन्तानन्त चौबीसियों के तीर्थंकरों के इस प्रकार के स्पष्ट उद्घोष के उपरान्त भो यदि कोई व्यक्ति, आठों कर्मों से पूर्णतः विनिर्मुक्त, अजरामर, निरंजन निराकार एवं अक्षय-अव्याबाध-अव्यय-अनन्त शाश्वत शिवसुख में विराजमान विमुक्तात्माओं, प्राणिमात्र के माता-पिता वीतराग-विश्वैकबन्धु तीर्थेश्वरों को रिझाने और इस प्रकार उन्हें प्रसन्न कर ऐहिक, पारलौकिक अथवा शाश्वत शिवसुख की प्राप्ति के लिए इन पांचों स्थावर निकायों का घोर प्रारम्भ समारम्भ कर इन पांचों एकेन्द्रिय निकायों एवं इनके आश्रित अगणित, असंख्य एवं अनन्त जीवों की हिंसा करता है, हिंसा करवाता है, इस प्रकार की हिंसा का अनुमोदन करता है, वह व्यक्ति द्वादशांगी के प्रथम अंग, आचारांग में वर्तमान, अतीत एवं अनागत के अनन्त तीर्थंकरों द्वारा प्रकट किये गये शाश्वत धर्म का शाश्वत सत्य का पाराधक कहा जायगा अथवा विराधक, यह प्रश्न लोकाशाह ने प्रत्येक मुमुक्षु जैनधर्मावलम्बी से पूछा। उस प्रश्न में भी कोई आग्रह नहीं, अति विनम्र शब्दों में केवल यही कहा-"डाह्या होइ विचारी जोज्यो।" लोकाशाह अने धर्मचर्चा नामक पुस्तक के लेखक महोदय को और उनसे पूर्व के आचार्यों, उपाध्यायों, विद्वानों एवं लेखकों को लोकाशाह के इन शास्त्रीय प्रश्नों में, आगम पर आधारित उपदेशों में कौनसे अधर्म की गन्ध आती है, इसका निर्णय तो वे पूर्वाभिनिवेश अथवा हठाग्रहपूर्ण साम्प्रदायिक व्यामोह के मुखोटे को दूर फेंक कर स्वयं ही कर सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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