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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह . [ ७६७ विश्वसनीय, कितना प्रामाणिक है, इसका निर्णय कोई भी विज्ञ विचारक सहज ही कर सकता है। लोकाशाह ने अपने ५८ बोलों में द्वादशांगी के प्रथम-प्रमुख अंग आचारांग सूत्र के चतुर्थाध्ययन के प्रथमोद्देशक में भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल की अनन्तानन्त चौबीसियों के तीर्थंकरों द्वारा संसार के समक्ष प्रकाशित धर्म के शाश्वत, त्रिकालसत्य, ध्रुव, नित्य, शुद्ध स्वरूप-“सव्वे पाणा सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हंतव्वा........न उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्धे, निइए सासए........" पर प्रकाश डालते हुह आचारांग सूत्र के ही-"तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदरण मागण, पूयणाए, जाइ मरण मोयणाए, दुक्खपडिग्घाय हेउं से सयमेव वरणस्सइसत्थं समारंभइ.... समारंभमाणे समणुजाणइ । तं से अहियाए, तं से अबोहिए ।" इस विश्वबन्धुत्व के भावों से ओतप्रोत "मा हिंस्यात् सर्वभूतानि", तथा “प्रात्मवत् सर्वभूतेषु, यः पश्यति स पश्यति" का संसार के समक्ष उद्घोष करने वाले सर्वज्ञ वीतराग के वचन पर आधारित अपने उपदेशों में कहा"कोई भी मुमुक्ष अपने जीवन को बनाये रखने के लिये, अपने मान-सम्मान-अपनी पूजा आदि के लिये और यहां तक कि जन्म मरण से मुक्ति पाने अर्थात् सब प्रकार के सांसारिक दुःखों से सदा सर्वदा छुटकारा दिलाने वाली मुक्ति को प्राप्ति तक के लिये भी षड्जीवनिकाय के किसी भी प्राणी की कभी किसी भी दशा में हिंसा न करें। क्योंकि प्रारिणहिंसा प्रत्येक प्राणी के लिये अहित कर है, बोधिबीज की घोर शत्रु और अनन्त काल तक अनन्त दुःखों से ओतप्रोत दुःख सागर रूप संसार में भटकाने वाली भवभ्रमण कराने वाली है ।" तथा "बुड्ढं जज्जर थेरं, जो घायइ जमल मुट्ठिणा तरुणो । जारिसी तस्स वेयणा, एगिदी संघट्टणे तारिसी ।।" इस आप्तवचन की ओर चतुर्विध जैन संघ के प्रत्येक आबाल वृद्ध सदस्य का ध्यान आकर्षित करते हुए लोंकाशाह ने कहा-"एक प्रबल पराक्रमी पूर्ण युवावस्था को प्राप्त युवक किसी जराजर्जरित अत्यन्त अशक्त अतिवृद्ध व्यक्ति के वक्षस्थल पर अपनी पूरी शक्ति के साथ मुष्टि प्रहार करे और उस भीषण मुष्टिप्रहार से जिस प्रकार की भयावहा वेदना उस जीर्ण-शीर्ण वृद्ध पुरुष को होती है, ठीक उसी प्रकार की भीषण वेदना पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति के एकेन्द्रिय प्राणी को, उसका संघट्टा अर्थात् स्पर्शमात्र करने से होती है । संघट्ट अर्थात् स्पर्श मात्र से जब इस प्रकार की वेदना होती है तो एकेन्द्रिय प्राणी की हिंसा करने से उस प्राणी को कितनी दुस्सह्य दारुण वेदना होती होगी इसका अनुमान तो प्रत्येक विज्ञ सहज ही कर सकता है।" 'लोकाशाह ने और भी कहा-"अहिंसा परमोधर्मः" "मा हिंस्यात् सर्व भूतानि"-इन वैदिक उद्घोषों में कुछ छूट का प्रावधान प्रस्तुत करते हुए कतिपय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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