________________
सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह
[ ७६५ चैत्यों में नियतनिवास करने वाले शिथिलाचारी चैत्यवासी श्रमणों द्वारा जिन्हें सावधाचार्य के नाम से अभिहित किया उन कुवलय प्रभ के :–......... ............ जहां भो भो पियंवए! जइ वि जिरणालए तहावि सावज्जमिणं रगाह वायामित्तेणं पि एयं आयरिज्जा।"
ये शब्द सत्य के उपासक मुमुक्षु प्रत्येक जिनशासनप्रेमी के कर्णरन्ध्रों में अहनिश गुजरित हो रहे थे और प्रत्येक सच्चा जैन प्रभु महावीर के धर्मसंघ की इस प्रकार की दयनीय दशा देख कर दुखित हो रात-दिन चिन्ता कर रहा था कि शिथिलाचार के गहरे दलदल में धंसे-बाह्याडम्बर के भीषण भंवरजाल में फसे संघ रथ का, धर्म रथ का अनागमिक अधर्म के पथ से उद्धार कर इसे पुरातन पुनीत प्रशस्त पथ पर कौन अग्रसर करेगा, कौन गतिशील करेगा? उस समय धीर-वीर धर्मप्राण लोंकाशाह ने धर्म के नाम पर किये जा रहे अनागमिक अर्थात् अधर्मपूर्ण ताण्डवनृत्य को समाप्त कर संघ रथ को प्रशस्त आगमिक पथ पर अग्रसर करने के संकल्प के साथ आगमों का अक्षरश: अनुसरण करने वाली अभिनव धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किया। उन्होंने वस्तुतः न तो कोई नया मत चलाया, न किसी अभिनव मान्यता के ग्रन्थ का निर्माण किया और न कोई नया उपदेश ही दिया । एकमात्र आगमिक तथ्यों, मान्यताओं एवं सिद्धान्तों पर प्रकाश डालने के उद्देश्य से लोकाशाह द्वारा लोकभाषा में निर्मित प्रश्नों एवं बोलों आदि में एक भी शब्द ऐसा नहीं, जिसके आधार पर कोई भी मिथ्याभिनिवेशविमुक्त सत्योपासक व्यक्ति यह कह सके कि लोंकाशाह ने नये मत को चलाया, आगमिक सिद्धान्तों से भिन्न कोई उपदेश दिया अथवा एक शब्द तक भी कहा । उन्होंने तो परीषहभीरु एवं शिथिलाचार के पंक में आकण्ठ निमग्न महापरिग्रही नामधारी आचार्यों, मठाधीशों, श्रीपूज्यों अथवा जैनसंघ के कर्णधार होने का दम्भ भरने वाले तथाकथित युगप्रधानाचार्यों द्वारा जैनधर्म के परमपवित्र सर्वज्ञभाषित शाश्वत आगमिक आध्यात्मिक स्वरूप में, श्रमणाचार एवं श्रावकाचार में अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु धर्म के नाम पर प्रविष्ट की गई विकृतियों, धर्म के नाम पर प्रचलित एवं अन्ततोगत्वा रूढ़ की गई अनागमिक एवं प्रागमविरुद्ध होने के कारण अधार्मिक मान्यताओं, प्रवृत्तियों, विधिविधानों, परिपाटियों एवं अधिकाधिक द्रव्योपार्जन के लक्ष्य से भोले उपासकवृन्द के दैनिक जीवन में लूंस-ठूस कर भर दी गई बाह्याडम्बरपूर्ण कुरूढ़ियों के घटाटोप को सदासदा के लिये समाप्त कर देने का दृढ़ संकल्प लिये सर्वज्ञभाषित-गणधरग्रथित आगम में प्रतिपादित धर्म के सर्वांगीण विशुद्ध स्वरूप को आगमों के मूल पाठों के उद्धरणों के साथ जन-जन के समक्ष प्रस्तुत किया। श्रमण भगवान् महावीर द्वारा तीर्थप्रवर्तनकाल में प्ररूपित प्रदर्शित धर्म के विशुद्ध स्वरूप पर प्रकाश डालने हेतु लोकाशाह ने आगमों का अवगाहन कर, देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के उत्तरवर्ती काल में हुए आचार्यों द्वारा रचित, नियुक्तियों, भाष्यों, चूणियों, वृत्तियों आदि साहित्य का अन्तःनिरीक्षण कर उस समय की लोकभाषा में आगमसारभित १३ प्रश्नों, ५८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org