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________________ ७६४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ इन ग्रन्थों की रचना के प्रयोजन पर पुनः प्रकाश डालते हुए प्रस्तावनाकार सागरचन्द्रसूरि ने लिखा है : "पा ग्रन्थो रचवानो प्रयोजन ते वखते जैनोमां वातावरण घणोज कलुषित थएल परस्पर द्वेष, ईर्ष्या, सत्य वस्तु ने ढांकनारा, साधुमुनिग्रोने न छाजे तेवी बाह्य धर्माधर्म-आडम्बर ने सेवनारा वेषधारीयोनी प्रबलता बधि गएल हती, तेमज सत्य वस्तु ने अोलखनारा प्रगट थया हता । कारण के सोलसेनी सदीमां जैन वेषधारीयोनी अंदर शिथिलता, क्वचित् क्रियाजड़ता, केटलाएकनी सावध क्रियाओ मां प्रवृत्ति अने केटलाएकमां आगम प्रतिपादित वस्तुस्वरूप मां अनादरता फेलाएल हती। एज टाइममां सूत्र आणा अोलंघी स्वछन्दपणे लोंकामती, विजयामती अने कड़ वामती विगेरे प्रगट थइ पोतानी मान्यता फेलावी रह्या हता। तेवा समय मां............आत्मार्थी या परमपूज्य आचार्य महाराजे मुनिमार्ग नी शुद्ध देशना निर्भय पणे करवा मांडी।'' मूर्तिपूजक आम्नाय की प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाले विद्वान् आचार्य पार्श्वचन्द्र सूरि ही नहीं अपितु मूर्तिपूजक परम्परा के प्रायः सभी गच्छों की पट्टावलियां समवेत स्वरों में यह प्रकट कर रही हैं कि विक्रम की पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में जैनों में, जैन संघ में वातावरण अत्यधिक कलुषित हो गया था, पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, कलह, सावद्य क्रियाओं में प्रवृत्ति, प्रागमों में प्रतिपादित सिद्धान्तों, निर्देशों, मान्यताओं, धर्म-श्रमणाचार एवं श्रावकाचार के प्रति अनादर, अनास्था, उपेक्षा भाव, शिथिलाचार और सागरचन्द्रसूरि के उपरिलिखित शब्दों के अनुसार "साधु-मुनियों ने न छाजे तेवी बाह्य धर्माधर्म आडंबर ने सेवनारा वेषधारिओनी प्रबलता बधि गयेल हती, अर्थात् एक प्रकार से चरम सीमा को भी लांघ चुकी थी। नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि (वि० सं० १०८८-११३५) की यह गाथा देवढि खमासमणजा परंपरं भावो वियाणेमि । सिढिलायारे ठविया, दव्वओ परम्परा बहुहा ।। जिनदत्तसूरि (वि० सं० ११६६ सूरिपद) की निम्नलिखित गाथाएं : गड्डरिपवाहओ जो, पइनयरं दीसए बहुजणेहि। जिणगिह कारवणाई, सुत्तविरुद्धो असुद्धो य ।। सो होई दव्वधम्मो, अप्पहारणो नेव निव्वुइ जणइ । सुद्धो धम्मो बीओ, गहिरो पडिसोयगामीहिं ।। भावसागरसूरि (वि० सं० १५६० में सूरिपद) की निम्नलिखित गाथा : दुस्सह दूसमवसो, साहपसाहाहि कुलगणाईहिं । विज्जा किरिया भट्ठा, सासणमिह सुत्तरहिनं च ।। १. श्री सप्तपदी शास्त्र प्रस्तावना पृष्ठ ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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