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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ७३५ श्री जीवराज को अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति हुई। उन्होंने अहिंसामूल-दयापरक धर्म के सच्चे स्वरूप को समझकर मेहता लखमसी के समक्ष शुद्ध सम्यक्त व ग्रहण किया। अति विनम्र स्वर में उन्होंने मेहता लखमसी से कहा--"महात्मन् ! मेरे अन्तर्मन में संसार से विरक्ति उत्पन्न हो गई है। मेरी आन्तरिक इच्छा है कि मैं शीघ्रातिशीघ्र संयम ग्रहण कर लूं किन्तु इतने विशाल संघ को लेकर आया हूं। यदि संघ को पूरी यात्रा कराये बिना बीच में छोड़ दंगा तो लोग मन-मानी बातें घड़ कर मेरी अकीति फैलायेंगे। कोई कहेगा खर्चे से डर गया, कोई कहेगा-"मैं तो पहले ही कहता था कि यह महा मूंजी है, यह क्या संघ को आखिर तक निबाहेगा।" इस भांति लोग मुझे अनेक प्रकार से बुरा बता कर कोसेंगे। इस कारण मैं संघ की यात्रा पूर्ण करवाने के पश्चात् अपने घर जा स्वजनों की अनुमति प्राप्त कर पुनः यहां उपस्थित हो संयम ग्रहण करूंगा।" ___ तदनन्तर संघ के पूर्व निश्चयानुसार यात्रा पूर्ण कर संघवी जीवराज संघ के साथ सूरत लौटे । वहां हरिपुरा के अपने आवास में पहुंच कर उन्होंने संघ को सप्रेम विदा दी। __संघ को विदा करने के पश्चात् जीवराजजी ने अपने घर में जाकर स्त्रीपुत्र आदि परिवार को एकत्रित कर उनसे कहा - "मैं अब इस क्षणभंगुर असार संसार के बन्धनों को तोड़कर श्रमण धर्म अंगीकार करूंगा। मेरा यह दृढ़ संकल्प है । मुझे अपने इस संकल्प से संसार की कोई शक्ति रंचमात्र भी विचलित नहीं कर १. देव गुरु ने वांद ने जी संघ ने, मांहे तब तांस । लोकागच्छ श्रावक मल्या, शाह जीवराज ने पास ।।३२।।त०।। कोईक कोतक तुम्हें सांभलो, अणियलपुर ने मांहि । मेहतो लखमसी इहां बसे, सुद्ध धरम से धीर रे ॥३५॥त०॥ एहवा वचन श्रावक तणां, सुरण ने साह जीवराज । वलतो श्रावक ने कहे ए पुरुष मुझ ने देखाड़ । श्रावक लोंकागच्छ नो, लेई ने संघ ने साथ । लखमसी मेहता पासे गया, सीझ्या वंछित काज ॥३७॥ संघपति जीवराज ने, दया धरम सुणाय । एहवा बचन सांभली, हर्षित हुवो अपार ।।३८।।त०॥ . समकित तां तेणे आदयों, संजम लेहवा नो भाव । इहां जो दीक्षा हूं लऊं, तो मोहे ठुउगे लोग ।।३६।।त०।। -एकपातरिया (पोतियाबन्ध) गच्छ पट्टावली-(हस्तलिखित)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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