SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 672
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामान्य श्रुत्तधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ६५३ निवारवानइ अर्थे पहिलु अचित्त डंडउ लीयइ, पछइ परित्र, पछइ अनन्तकाय नु डंडूं लीइ-डाहु हुइ ते विचारज्यो ।।२२।। तथा षष्ठोद्देशके सूत्र मध्ये एकांति मैथुन निषेध छइ, एहनी चूरिण मध्ये कहिउं छइं-अपवादि साधु नई मैथुन नु उदय थयु, तिहारि अनुपशमति प्राचार्य नइ कहिवं, अनइ न कहइ प्राचार्य नइ, तउ तेह नइ चउ गुरु प्रायश्चित्त, अनइ कह या पछी प्राचार्य तेहनी चिंता न करइ, तउ आचार्य नइ चउगुरु प्रायश्चित्त इम मोहनीय उदयइं नीवीयादिक करावइ । इम करावतां न रहइ तउ मुक्तभोगी थिवर संघातई वेश्यादिक नइ पाडइ जइ शब्द सुरणावइ, इम न रहइ तउ आलिंगनइ, इम न रहइ तु त्रिजंचणी संघाति ३ वार, पछइ मूई मनुष्यणी संघाति ३ वार, इम करतां न रहइ तउ स्वलिंगई परिलिंगइ स्यु सेवतउ गण थकी उवभुत्त थिवर संघातइं अनेरी वसति थापीइ अंधारइ किटिसढ्ढीए मेलिज्जइ एवं तिरिणवार न जति (यदि) उवसमइ तु सुन्दर उवस्स चउ गुरु । इम चौथा व्रत नउ अपवाद चूणि मध्ये छइ। तेह (जेह) नइ परलोक नउ अरथ हुइ ते एहवा सूत्र विरुद्ध किम मानइ ? एहवा अघटताना करणहार नइ प्रायश्चित्त चउगुरु उपवास मांहि, डाहु हुइ ते विचार्यो ।।२३॥ ___ अथ दशमोद्देशके सूत्रई अनन्तकाय खावी निषेध्यो छइ। अनि एहनी चूणि मध्ये कारणइ भोगवइ, असिवादि जाहे मिश्र न लाभइ ताहे परित्तकाय संमिस्संमि गण्हइ, जाहे ते न लाभइ ताहे मिश्र न लाभइ ताहे अनन्तकाय मिश्र गहइ । इहां चूणि मध्ये कारणइ अनन्तकाय खावी कही छइ, डाहु हुइ ते विचारज्यो ।।२४।। अथ द्वादशमोद्देशके सूत्र मध्ये सचित्त रूखइ चढवु निषेध्यु छइ, अनइ एहवी चूर्णि मध्ये कारणई गिलान्न औषध नइ अर्थे चढइ, मागि अणसरतइ फल नइ अर्थे दुरूहइ, उदग नइं अर्थई पूरइ प्रायुधट्ठा उपधि शरीर चोर राय भय स्वापद भय नइ विषइ तिहां पहिलु सचित्त वृक्षई चढइ, पछइ मिश्रई, पछइ परित्त सचित्त, पछइं अनन्तकाय नइ सचित्त वृक्षइं चढइं एवं कारणे जयणाए न दोषो। इहां चूणि मध्ये कारणे वृक्ष एहवइ अनन्तकाय नइ चढतां दोष नहीं । एहवा निशीथ चूणि सर्व किम प्रमाण करइ ॥२५॥ तथा उत्तराध्ययन छट्ठा नी वृत्ति मध्ये चारित्रिउ चक्रवर्ती नु कटक चूर्ण करइ ते अधिकार लिखीइ छई-लब्धिपुलाक जेह नइ देवेन्द्र ऋषि सरीखो ऋद्धि हुइ ते संघादिक कार्य उपनि चक्रवत्तिस्स बलवाहन चूर्ण करवा समर्थ-डाहु हुइ ते विचारज्यो ।॥२६॥ __तथा व्यवहार नी प्रथमोद्देशके-"परिहार कप्पट्टिते भिक्खू"- इत्यादि ए शब्द नी वत्ति मध्ये वृत्ति नल दाम कौली नी कथा छइ, ते लिखीइ छइ-एक इं राजाई कहिउं-मुझ संघातइं विवाद करउ, तिवारि ते राजा नइ अनुकूल वचनइं प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy