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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकशाह [ ६५१ इस सन्दर्भ में आगमरुचि विज्ञों के लिए यह विचारणीय है कि महान् धर्मोद्धारक लोकाशाह ने विक्रम सम्वत् १५०८ के आसपास आज से लगभग ५३५ वर्ष पूर्व जैन धर्मसंघ के समक्ष यह बात रक्खी थी कि तथाकाररणई झूठं वोल वु कहिउ छइ तथा काररणइ चोरी करवी - ते करइ तउ शुद्ध । तथा वशीकरण मन्त्र चूर्णादि करी वस्तु लेवी तथा ताला उघाडी औषधादि अदत्त लेवा कहिया छइ ||२|| • तथा कारणें परीग्रह राखवो कह्यो छइ, हिरण्य, द्रव्य, घटित अघटित मार्गइं चालतो ल्यइ ( लेवे ) ॥३॥ तथा उदार हिरण्य सुवर्णई करी ते दुर्लभ द्रव्य मोल लीयइ || ४ | तथा दुर्लभ द्रव्य नइ अर्थ सचित्त काई प्रवालादिक तेराई सचित्त पृथिव्यादिक करी ते दुर्लभ द्रव्य मोल लियइ, इम कहियउ छइ ||५|| तथा अर्थ उपार्जवा नई अर्थई धातनी माटी प्राणि नई सोनु, रूप, तांबू, सीसूं, तरूष्यादिक उपजाववु कह, युं छइ ।।६।। तथा कारण रात्रि भोजन कहिउं छइ । गिलान नई काररणई रात्रि भोजन करइ, तथा मारगइं चालवु, रात्रइ जिमवु तथा दुर्लभ द्रव्य नइ अर्थइं रात्रि जीमइ तथा संथारू' कर्यु होइ - अनइ रही न सकइ तउ रात्रि जीमबुं तथा दुका गच्छ नी अनुकम्पा नह हेतइ - राती भत्तारगुणा - रात्रि भोजन नी आज्ञा छइइत्यादि घरणा प्रकार विरुद्ध छइ ||७| तथा दंसरण प्रभावक शास्त्र तेह नी सिद्ध नइ अर्थे निर्णइ नै हेतई प्ररणासरति अकल्पनीक हेतु शुद्धः - अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः ॥ ८ ॥ तथा तपस्वी नइ अथि उष्ण पेज्जादि ( पेयादि) रंधावी लेवी, ताढुं तवस्वी नइ सहइ नहीं ते भरर्णी आधाकर्म्म लेतां दोष नहीं || ६ | इम ज्ञान चारित्र नइ अर्थइ अकल्पनीक ले तु (तो) शुद्ध || १०॥ तथा प्रवचननां हित नई अथि पडिसेवंतो शुद्ध, विष्णु कुमार नीं परि । तथा जिम कोई राजाई कहिउं तुम्हो ब्राह्मणां नई वांपु, पछइ सर्व संघ एकठो थइ कहिवा लागउ जेह नइ क्ति सावद्य - निरबध हुई ते प्रजु झउं । तिवारई एकई साधइं कह, युं – हूं प्रजूंमूं । सर्व ब्राह्मण एक्ठा कराव्या, तेराई साधई करणवीर नी कांबडी मन्त्री, सर्व ब्राह्मरण एक्ठा थया हता, तेहनां मस्तक उतार्या पछइ राजा उपरि रूठो, पछई राजा बीहतो पगे लागो । तथा अनेरा आचार्य इम कहइ छइ-ते राजा परिणतिहां चूर्ण कीधु । इम प्रवचन संघ- ते हनइ अर्थइ सेवइ तो शुद्ध - अप्रायश्चित्ती, इत्यादि विरुद्ध अघटता चूरिंग मांहइ घरणा छइ ।। ११ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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