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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जैन संघ की स्थिति [ ६३३ का परित्याग रूप क्रियोद्धार किया। आपके इस क्रियोद्धार में कतिपय संविग्न साधुओं ने साथ दिया, यह क्रियोद्धार आपने १५८२ के वर्ष में किया । आपकी इस त्यागवृत्ति से प्रभावित होकर अनेक गृहस्थों ने 'लुकामत' तथा 'कडुअामत' का त्याग किया और कई कुटुम्ब आदि का मोह छोड़कर दीक्षित भी हुये ।...... ___क्रियोद्धार करने के बाद श्री आनन्द विमलसूरि जी ने १४ वर्ष तक कम से कम षष्ठतप करने का अभिग्रह रखा । आपने उपवास तथा छट्ठ से २० स्थानक तप का आराधन किया, इसके अतिरिक्त अनेक विकृष्ट तप करके अन्त में ( वि. सं.) १५६६ में चैत्र सुदि में आलोचनापूर्वक अनशन करके नव उपवास के अन्त में अहमदाबाद नगर में स्वर्गवासी हुए।"१ उपर्युल्लिखित तथ्य इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि चैत्यवासियों द्वारा श्रमणाचार में जो घोर शिथिलाचार प्रविष्ट किया गया, उसका प्रभाव विक्रम संवत् १०८० की अवधि से लेकर विक्रम संवत् १५८२ तक की अवधि के बीच किये गये अनेक क्रियोद्धारों के उपरान्त भी जैन धर्म संघ पर न्यूनाधिक रूप में बना ही रहा। चत्यवासी परम्परा और सुविहित कही जाने वाली परम्पराओं के प्राचीन उल्लेखों एवं घटना-क्रमों के तुलनात्मक पर्यवेक्षण से यह एक बड़ा ही विस्मयकारी तथ्य प्रकाश में आता है कि चैत्यवासी परम्परा द्वारा आविष्कृत अनेक मान्यताओं का प्रभाव सुविहित परम्पराओं पर अनेक प्रकार के क्रियोद्धारों के उपरान्त भी बना रहा । इस सम्बन्ध में एक विस्मयकारी तथ्य यहां प्रस्तुत किया जा रहा है - चैत्यवासी परम्परा के सूत्रधारों व कर्णधारों ने सर्वज्ञ प्रणीत आगमों की अपेक्षा भी अपनी कपोल कल्पना को, अपने मस्तिष्क व बुद्धि की उपज को अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये सर्वोपरि प्रामाणिक मानते हुए चैत्यवासी साधुओं के लिये जो दस नियम बनाये थे, उनमें प्रागमों के विरुद्ध एक प्रकार से खुला विद्रोह घोषित करने वाला नवमां नियम इस प्रकार है : "साधु इस प्रकार की क्रियाओं का स्वयं आचरण करें तथा उन क्रियाओं के विधि-विधानों का उपदेश एवं प्रचार-प्रसार कर लोगों से उन क्रियाओं का पालन करवाएं जो शनैः शनै: मोक्ष-मार्ग की ओर ले जाने वाली हैं । यदि इस प्रकार की क्रियाओं का, बातों का, विधि-विधानों का आगमों में उल्लेख नहीं है, तो आगमों की उपेक्षा करें। आगमों में यदि उन क्रियाओं का निषेध है तो आगम वचन का अनादर करके भी उन १. पट्टावली पराग संग्रह पृष्ठ १५३-१५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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