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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
रहे धर्मसंघ के शाश्वत अटल नियम के प्रति सजगता नहीं दिखाई। इस अटल अमर सिद्धान्त की उपेक्षा अवहेलना कर अनागमिक मान्यताओं को धर्म संघ में अंकुरित होने का, प्रसृत होने का अवसर प्रदान किया गया। आगमों की इस प्रकार की अवेहलना अवमानना के दुष्परिणामस्वरूप द्रव्य परम्पराओं ने अनागमिक एवं आगम विरुद्ध मान्यताओं को चतुर्विध धर्मसंघ की धार्मिक दैनन्दिनी में प्रविष्ट कर धर्म के मूल स्वरूप को विकृत कर दिया, सुधर्म गच्छ परीक्षाकार के शब्दों में चतुर्विध धर्मसंघ के प्राचार को ही दन्दोल डाला-उथल-पुथल, उलट-पलट कर डाला। धर्मसंघ की इस प्रकार की विकृत अवस्था को देखकर सर्वप्रथम महामनीषि अतुल साहसी, श्री वर्द्धमानसूरि ने विकृति की ओर प्रवृत्त हुए धर्मसंघ के उद्धार के लिये क्रियोद्धार का शंखनाद पूरा । उन्होंने धर्मसंध में प्रथमतः उत्पन्न की गई और तदनन्तर उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्ररूढ़ कर दी गई विकृतियों के समूलोन्मूलन के लिये आमूल-चूल धर्मक्रांति का सूत्रपात करते हुए कहा : "हम केवल जिनेश्वर द्वारा उपदिष्ट गणधरों अथवा चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा ग्रथित अथवा चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा नियूंढ़ आगमों को ही सर्वोपरि एवं परम प्रामाणिक मानते हैं, आगमों से इतर अन्य (ग्रन्थ) हमें मान्य नहीं है।"
इस प्रकार के सम्पूर्ण क्रियोद्धार अथवा समग्र कान्ति के उद्घोष के उपरांत भी कालान्तर में सम्भवतः एक दो पीढ़ी बाद ही उनके इस क्रांति नाद की चतुर्विध संघ द्वारा उपेक्षा कर दी गई। तदनन्तर वर्द्धमानसूरि के उत्तरवर्ती काल के जिनजिन महापुरुषों ने श्रमण भगवान् महावीर के धर्मसंघ में प्रविष्ट हुई विकृतियों के समूलोन्मूलन के लिये क्रियोद्धार किये वस्तुतः उन्हें पूर्ण क्रियोद्धार की अथवा समग्र धर्मक्रान्ति की संज्ञा नहीं दी जा सकती । वस्तुतः उन्होंने वर्द्धमानसूरि की भांति एकमात्र आगमों को ही सर्वोपरि एवं परम प्रामाणिक मानने का उद्घोष न कर सम्पूर्ण क्रियोद्धार के स्थान पर प्रांशिक क्रियोद्धार किये। "प्रागमिकगच्छ"-इस नाम से प्रत्येक विज्ञ व्यक्ति को यही आभास होता है कि आगमिकगच्छ के संस्थापक महापुरुष ने क्रियोद्धार करते समय एक मात्र आगमों को ही प्रामाणिक और सर्वोपरि मानने का उद्घोष किया होगा। किन्तु इस गच्छ के कार्य-कलापों, इस गच्छ की लम्बे काल की रीति-नीतियों के पर्यवेक्षण से इस प्रकार का कोई आभास नहीं मिलता कि इस गच्छ के कर्णधारों ने प्रागम से भिन्न नियुक्तियों-वृत्तियों-भाष्यों
और चूणियों को आगम तुल्य प्रामाणिक न मानने का कोई उद्घोष किया हो । इन सब तथ्यों पर विचार करने के पश्चात् यही निष्कर्ष निकलता है कि वर्द्धमानसूरि आदि जितने भी धर्मोद्धारकों द्वारा क्रियोद्धार किये गये वे वस्तुतः सर्वांगपूर्ण नहीं, अांशिक क्रियोद्धार ही थे। नीम-हकीमों की कहावत के अनुसार इन अधूरे-अपूर्ण क्रियोद्धारों के कारण भगवान् महावीर के धर्म संघ को बड़ी हानि उठानी पड़ी। जिन-जिन छोटी-बड़ी कतिपय मान्यताओं को लेकर उन महापुरुषों ने समय-समय पर जो क्रियोद्धार किये उनके कारण धर्मसंघ में गच्छों की बाढ़-सी आ गई ।
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