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________________ सामान्य श्रुतघर काल खण्ड २ ] विशाखगणि . से विभूषित हैं, उन परम पूज्य श्री विशाख गणी नामक आचार्य की निश्रा में इसे (निशीथ सूत्र को) लिखा गया।' पुस्तक लेखन, लिपिकर्ता द्वारा आलेखन की समाप्ति पर प्रशस्ति लेखन आदि तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में तित्थोगाली द्वारा प्राचार्यश्री विशाख गणी के वीर निर्वाण से २००० में स्वर्गस्थ होने के उल्लेख पर विचार करने से यह अनुमान वास्तविकता की परिधि में आ जाता है कि तित्थोगाली पइन्नय में वर्णित विशाख मुनि की निश्रा में ही निशीथ की कतिपय प्रतियों का आलेखन किया गया और महत्तर पदवी भूषित ४४वें युग प्रधान विशाख गणी अतुल ज्ञान के भण्डार विशुद्ध श्रमणाचार के प्रतीक और धर्म धुरा के कुशल धुरीण थे। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वीर निर्वाण सम्वत् २००० अर्थात् वि० सं० १५३० तक विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाली युगप्रधान परम्परा भले ही क्षीण से क्षीणतर अवस्था में ही क्यों न रही हो, पर वह वस्तुतः विद्यमान अवश्य रही है । यहां प्रत्येक विज्ञ के मन में यह शंका सहज ही उत्पन्न हो सकती है कि वि० सं० १५०८ में ही महान् धर्मोद्धारक लौंकाशाह का अभ्युदय हो चुका था और वि० सं० १५३१ में तो भाणजी आदि ४५ मुमुक्षुत्रों ने लौंकाशाह के उपदेशों से प्रबुद्ध हो लौंकाशाह द्वारा प्रकाश में लाये गये अहिंसा दया मूलक विशुद्ध जिनमत में श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली थी, ऐसी स्थिति में यदि उस समय वि० सं० १५६३ से १५३० की अवधि में विशाख गरणी की विद्यमानता रही होती तो कहीं न कहीं उनका, उनकी परम्परा का उल्लेख तो मिलना चाहिये, लौंकाशाह से भी उनका साक्षात्कार होना चाहिये। जहां तक विशाख गणी अथवा उनकी परम्परा के उल्लेख का प्रश्न है वस्तुत: इस प्रकार के दो उल्लेख आज भी विद्यमान हैं। पहला तित्थोगाली पइन्नय का और दूसरा हस्तलिखित निशीथ की कतिपय प्रतियों की प्रशस्ति का, जिनका कि उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। १. हमें खेद है कि द्वितीय भाग के आलेखन के समय उसके पृष्ठ संख्या ६८ के अन्तिम पैराग्राफ में स्खलना वश यह लिख दिया गया है कि-"....."तो विशाख नाम के प्राचार्य ने प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु के प्राचार नामक बीसवें प्राभृत से सारभूत अंशों को उद्धृत कर "प्राचार प्रकल्प" अर्थात् “निशीथ" का निष्पादन किया और उसे छेद सूत्र के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया ।" वस्तुतः उपरिलिखित गाथाओं से यही सिद्ध होता है कि विशाख गणी की निश्रा में निशीथ का आलेखन किया गया, न कि निशीथ का निष्पादन अथवा प्रतिष्ठापन । -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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