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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
जड़ शाह
[ ५६३ -
रोहिणी - शकट का भेदन कर रहा है। उसने दूसरे साधुओं को भी यह दृश्य दिखाया । उन साधुओं को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने अपने गुरु की सेवा में उपस्थित हो निवेदन किया -- "भगवन् ! आज इस समय चन्द्र रोहिणी - श -शकट का भेदन कर रहा है।"
शिष्यों की इस सूचना पर गुरु ने भी देखा कि वस्तुतः चन्द्र रोहिणी - शकट का भेदन कर रहा था । गुरु ने अपने शिष्यों से पूछा - "यहां अपने आस-पास तुम लोगों के अतिरिक्त अन्य कोई तो उपस्थित नहीं है ?"
इधर-उधर देखकर शिष्यों ने उत्तर दिया- "नहीं, भगवन् ! यहां अपने पास अन्य कोई उपस्थित नहीं है ।" उपाश्रय में व्याप्त अन्धकार के कारण वे साधु पास ही एक स्तम्भ की ओट में बैठे जगड़ शाह को नहीं देख पाये थे ।
शिष्यगरण के उत्तर से प्राश्वस्त हो गुरु ने कहा - " चन्द्र द्वारा रोहिणीशकट का भेदन इस अनिष्ट की पूर्व सूचना दे रहा है कि सम्वत् (वि० सं०) १३१५ में देश-व्यापी एक प्रति भीषरण त्रि- वार्षिक दुर्भिक्ष पड़ेगा ।"
शिष्यगरण ने पूछा - "भगवन् ! उस भावी संक्रान्तिकाल में लोगों का उद्धार करने वाला कोई है कि नहीं ?"
गुरु ने अपने शिष्यों को आश्वस्त करते हुए कहा - "अदृश्य शक्ति ने हमें पहले ही बता दिया है कि जगड़ शाह उस देशव्यापी भीषण संकट के समय देश - वासियों का उद्धार करेगा, दीन दुःखी जीवों की प्रारणरक्षा करेगा ।"
शिष्यवर्ग ने सशंक स्वर में प्रश्न किया - "भगवन् ! जगड़ शाह के पास इतना धन कहां है, जिससे कि वह दुष्काल पीड़ित कोटि-कोटि लोगों की जठराग्नि को शान्त कर उनकी प्राणरक्षा करने में सक्षम होगा ?"
गुरु ने कहा - "जगड़ के घर के पीछे बाड़ा है । बाड़े में एक आक का पेड़ है । उस आक के नीचे तीन करोड़ स्वर्ण मुद्राएं गड़ी पड़ी हैं ।
गुरु शिष्यों के बीच हुए इस वार्तालाप को सुन कर जगड़ शाह ने मन ही मन चिन्तन किया - "अहो ! मेरा बड़ा सौभाग्य है कि गुरु के मुखारविन्द से मैं अपने सम्बन्ध में इस प्रकार की बातें सुन रहा हूं ।" वह रात भर मौन धारण किये, उपाश्रय में धर्माराधन करता रहा । प्रातः काल वह अपने घर प्राया । उपवास के पारण के अनन्तर स्वयं उसने आक के नीचे भूमि को खोदा तो रात्रि में गुरुमुख जैसा सुना था, वह पूर्णतः सत्य सिद्ध हुआ । तीन करोड़ स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त हो जाने पर जगड़ शाह के अन्तर्मन में प्रचुर मात्रा में धान्य के क्रय एवं संग्रह करने की तीव्र आकांक्षा उत्पन्न हुई । अपने संकल्प के अनुसार उसने देश के विभिन्न भागों की मण्डियों में धान्य का क्रय एवं संग्रह करना प्रारम्भ कर दिया ।
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