________________
५४४
]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
........एवीज रीते अन्य सुविहित गच्छो मा पण चैत्यवासिनो ना केटलाक शिथिलाचारो प्रविष्ट थई वृद्धिंगत थता जता हता।"
सुविहित कही जाने वाली विविध गच्छीय अनेक श्रमण परम्पराओं पर चैत्यवासियों के आचार-विचार, व्यवहार, कार्यकलापों, परिपाटियों, मान्यताओं एवं कार्य प्रणालियों का व्यापक रूप से शनैः शनैः गहरा प्रभाव पड़ता गया, इस तथ्य के न केवल मौखिक ही अपितु लिखित पुष्ट प्रमाण भी आज जैन वाङ्मय में विपुल मात्रा में उपलब्ध होते हैं । इस विषय में एक अंचलगच्छीय विद्वान् द्वारा गहन शोध के पश्चात् प्रकट किये गये उद्गार प्रत्येक सत्यान्वेषी के लिए पठनीय, चिन्तनीय और मननीय हैं । अतः उन्हें यहां अक्षरशः उद्ध त किया जा रहा है । यथा :
"१०१. चैत्यवासीयो शिथिलाचारी हता, छतां एम ना मां अमुक उच्च गुणो जणवाया हता ऐ आपणे जोयु। एम ना उच्च गुणो नु अनुसरण करवा मां संवेगी पक्षो ए आनाकानी करी नथी,.ए पण नोंधनीय छ । शतपदी मां आपण ने जणाववा मां आवे छे के अभयदेवसूरि जेवा समर्थ प्राचार्य पण चैत्यवासीयो नी निंदा करी नथी, एटलुज नहीं, परन्तु चैत्यवासी द्रोणाचार्य पासे पोता ना ग्रंथो नु संशोधन पण कराव्युछे । वर्द्धमानसूरि पहेलां चैत्यवासी हता। तेमणे चोर्यासी चैत्यो नी मालिकी छोडी त्यारे आगमवाद नु वर्चस्व बध्यु। जैन निगमो मां थी आगमवादीयो ने ग्रहण करवा योग्य धार्मिक संस्कारो ना मंत्रो ने वर्द्धमानसूरिए "प्राचार दिनकर" ग्रन्थ बनावी ने ते मां गोठव्या तेमज अन्य आगमवादी प्राचार्यो ए निगमो माथी सार भाग ने ग्रही अन्य ग्रन्थो रच्या ऐवी केटलाक नी मान्यता छ । शत्रुजय रास ना कर्ता धनेश्वरसूरि चैत्यवासी हता एम पण कहेवाय छे।"
यही नहीं, जैन वाङ्मय में आज जितने भी प्रतिष्ठा कल्प उपलब्ध हैं, उनके पठन-चिन्तन एवं निदिध्यासन से प्रत्येक पूर्वाभिनिवेष-विमुक्त, क्षीर नीर विवेक बुद्धि, तटस्थ विज्ञ को हस्तामलकवत् स्पष्टतः दृष्टिगोचर हो जाता है कि इन प्रतिष्ठा कल्पों पर चैत्यवासियों की ऐसी अमिट छाप अंकित है, जो समय-समय पर क्रान्तिकारी क्रियोद्धारकों द्वारा शताब्दियों तक किये गये अथक प्रयासों के उपरान्त भी अद्यावधि नहीं मिट पायी है, नहीं धुल पाई है। उदाहरण के रूप में प्राचीन प्रभावक आचार्य पादलिप्तसूरि की निर्वाण कलिकान्तर्गत प्रतिष्ठा पद्धति को ही ले लिया जाय । उसमें प्रतिष्ठाचार्य की योग्यता, वेष-भूषा, प्राचार्यपद पर अभिषेक की विधि का विधान करते हुए लिखा है :-3 १. अंचलगच्छ दिग्दर्शन, पृष्ठ २६ २. अंचलगच्छ दिग्दर्शन, पृष्ठ २५, २६ ३. निबन्ध निचय, पृष्ठ २०५ व २०६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org