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________________ ५३८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ (६) घी, दूध, फल, फूल आदि का यथेष्ट सेवन करें। (१०) सचित्त ठंडे जल को पीने आदि के काम में लें। (११) गमनागमन आदि के लिये वाहन (सुखपाल) आदि रखें । (१२) वस्त्र, पात्र आदि का संग्रह करें। (१३) शय्या पर सोयें। (१४) तेल, अभ्यंग (पोठी) आदि का अपने अंग-प्रत्यंग पर मर्दन करें। (१५) छोटे-छोटे बालकों के माता-पिता को धन देकर अपने शिष्य परिवार को बढ़ाने के लिये बालकों का क्रय करें। (१६) चिकित्सा, मन्त्र-तन्त्र आदि के माध्यम से अपने जीवन को सुखी बनाने के लिये धनार्जन करें। (१७) जिनेन्द्र प्रभु की पूजा करते समय प्रारती स्वयं करें एवं बलिकर्म (हवन) करें। (१८) अपनी इच्छानुसार जिनमन्दिरों, पौषधशालाओं और व्याख्यान भवनों का निर्माण करवायें। (१६) महिलाओं से संसर्ग-सम्पर्क रखें, उनके समक्ष व्याख्यान दें, भजन कीर्तन आदि करें। (२०) स्वर्गस्थ हुए अपने गुरुओं के दाहसंस्कार-स्थलों पर पीठ (चबूतरे) आदि बनवायें। (२१) उपवास आदि कठोर तपश्चरण की कोई विशेष आवश्यकता नहीं। इस प्रकार चैत्यवासियों ने जे य कंते पिए भोए, लद्धे वि पिट्टी कुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चइ ।। आदि गाथाओं के माध्यम से आगमों में प्रतिपादित, जीवन भर तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने तुल्य, शाश्वत शिवसुखप्रदायी अति दुश्चर श्रमण जीवन को चैत्यवासी परम्परा के कर्णधारों ने एक सुसमृद्ध गृहस्थ के जीवन के समान सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण बना दिया। १. (क) "अंचलगच्छ दिग्दर्शन"-पृष्ठ २४ प्राक्कथन । (ख) “जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग ३", पृष्ठ ५७ से ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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