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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
अंचलगच्छ
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रहे । उनकी असफलता के दो और भी बड़े कारण थे। एक बहुत बड़ा कारण यह था कि चैत्यवासियों ने जन-जन के मन-मस्तिष्क में इस प्रकार की भावना भर दी कि बिना निगमों (ब्राह्मण परम्परा के वेदों की परिपाटी के अनुरूप चैत्यवासियों द्वारा रचित ग्रन्थों) और उपनिषदों का सहारा लिये बदलती हुई धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों में जैन-धर्म अपना अस्तित्व बनाये नहीं रख सकता। लोगों के मन-मस्तिष्क में चैत्यवासियों द्वारा बद्धमूल कर दी गई इस भावना के कारण चैत्यवासियों के पूर्ण वर्चस्व में आया हुअा विशाल जैन जन-समुदाय निगमों एवं उपनिषदों में प्रतिपादित किसी एक भी परिपाटी का परित्याग करने के लिये उद्यत नहीं था। क्रियोद्धारों के, आशानुरूप सफल न होने का दूसरा बड़ा कारणं यह भी था कि चैत्यवासी आचार्यों ने त्यागी वर्ग के लिये शास्त्रों में "दुरणचरो धम्मो वीराणं' की संज्ञा से अभिहित किये गये कठोर श्रमण धर्म की चर्या में भी सुविधाजनक परिवर्तन कर इस प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध करा दी थीं कि जिनसे श्रमण-श्रमणीवर्ग बिना किसी प्रकार के कष्ट अथवा परीषह-सहन के ही जीवन भर अपने अनुयायियों का परम पूज्य एवं उपास्य बना रह सके। त्यागी वर्ग के लिये चैत्यवासियों द्वारा श्रमणचर्या में उपलब्ध करवाई गई अथवा निर्धारित की गई सुविधाएं निम्न रूप में थीं :(१) जीवन भर एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करते रहने के
मूल श्रमणाचार का परित्याग कर जीवन भर एक ही स्थान पर अपने चैत्य में अथवा मठ में नियत निवास करें। मधुकरी (भिक्षाचरी) जैसे कठोर श्रमणाचार को तिलांजलि देकर अपने चैत्यों अथवा मठों में निरंजन-निराकार जिनेन्द्र प्रभ को भोग लगाने के लिये वहां की पाकशालाओं में निर्मित किये गये यथेष्ट अशन-पानादि से सुखपूर्वक अपने जीवन का निर्वाह करें। मन्दिरों अथवा मठों में श्रद्धालु भक्तों द्वारा जो धन जिनेन्द्र प्रभु के चरणों में भेंट किया जाय, उसका उपयोग वे अपनी सुविधा एवं इच्छानुसार करें। अपने भक्तों को सभी प्रकार के सांसारिक कार्यकलापों के मुहूर्त निकाल कर दें। निमित्तशास्त्र से उनके भावी जीवन से सम्बन्धित भविष्य-कथन करें।
सुगन्ध से सुवासित सुन्दर रंगीन वस्त्र यथेष्ट धारण करें। (६) यथेष्ट धन संचय करें। (७) केशलुचन जैसी कठोर श्रमणचर्या का परित्याग करें। (८) मुखशुद्धि हेतु ताम्बूलचर्वण करें।
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