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________________ ५३४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ के चरणों का प्रक्षालन कर उस चरणोदक को उन स्तम्भित भटों पर छिड़का । जयसिंहसूरि के चरणोदक के छींटों से वे सभी भट तत्काल स्तम्भन से मुक्त हुए और अपने परिजनों के साथ अपने-अपने घरों को लौट गये । ___ कालान्तर में किसी एक पार्श्वस्थ (किसी गच्छ विशेष के अग्रणी) ने भी जयसिंहसूरि का प्राणान्त करवाने के लिए कतिपय सशस्त्र भटों को भेजा । वे सुभट भी "विउणप्प” नगर के द्वार पर पहुंचते-पहुंचते परस्पर ही लड़ पड़े और जिस कार्य को करने के लिये वे आये थे, उस कार्य को ही भूल गये। उधर जिस विरोधी ने उन सुभटों को जयसिंहसूरि का प्राणान्त करने के लिये भेजा था, उसके उदर में अति भीषण असह्य पीड़ा उत्पन्न हुई और अन्ततोगत्वा वह भी जयसिंहसूरि के चरणोदक के पान से ही पीड़ा-मुक्त हो पाया। . इस प्रकार के उल्लेख इस बात के साक्षी हैं कि एकमात्र आगमों के आधार पर सर्वांगपूर्ण आमूलचूल क्रियोद्धार के अभाव एवं खण्डशः अपूर्ण छुटपुट क्रियोद्धारों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुए अनेकानेक नये-नये गच्छों के कारण जैन संघ विक्रम की तेरहवीं शती में ही वस्तुतः शत्रुभावपूर्ण पारस्परिक कलह का केन्द्र बन विद्वेषाग्नि में बुरी तरह झुलसने लग गया था। इस प्रकार की कलहपूर्ण स्थिति से तत्कालीन समाज के बहुजनपूजित प्रबुद्ध प्राचार्य चिन्तित भी थे किन्तु उन्हें इस बात का भय था कि जैन समाज के अंग-प्रत्यंग एवं अस्थि-मज्जा तक में व्याप्त विद्वेषाग्नि एवं कलह की ज्वालाओं को शान्त करने के लक्ष्य से सम्पूर्ण संघ में एकरूपता लाने हेतु यदि किसी भी प्रकार का प्रयास किया जायगा तो वह धुक-धुकाती अग्नि-ज्वालाओं में घृत उंडेलने तुल्य अति भयावह होगा। उस प्रकार के प्रयास से समाज में व्याप्त विद्वेषाग्नि और भी अधिक प्रचण्ड वेग से भड़क उठेगी । यही कारण था कि कलिकाल-सर्वज्ञ के विरुद से विभूषित हेमचन्द्रसूरि जैसे महान् प्रभावक प्राचार्य को भी मेरुतुगसूरि द्वारा किये गये उपयुल्लिखित तथ्यानुसार इस विषय में मौन-साधना का ही आश्रय लेना पड़ा। नियोद्धार एक अति दुष्कर कार्य आचार्य रक्षितसूरि (मुनि विजयचन्द्र) ने जैन धर्म और श्रमणाचार के विशुद्ध स्वरूप को जन-जन के समक्ष पुनः प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से वि० सं० ११६६ में एक प्रकार की धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किया था। उनसे लगभग ८० वर्ष पूर्व विक्रम की ११वीं शताब्दी के सर्वप्रथम क्रियोद्धारक एवं खरतरगच्छ के नाम से कालान्तर में प्रसिद्ध हुई परम्परा के प्राद्याचार्य श्री वर्द्धमानसूरि और उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि ने जिनधर्म के वास्तविक स्वरूप को यथावत् पुनः प्रतिष्ठापित करने के उद्देश्य से धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किया था। प्राचार्य रक्षितसूरि से लगभग २० वर्ष पूर्व (वि० सं० ११४६ में) पौर्णमिक गच्छ के संस्थापक आचार्य चन्द्रप्रभ ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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