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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
पद पर आसीन होने के साथ-साथ "विधिपक्ष अपर नाम अंचलगच्छ" की स्थापना की। एतद्विषयक इसी पट्टावली की निम्नलिखित गाथाएं मननीय हैं :
एगारस छत्तीसे (वि० सं० ११३६) जम्मण बायाल (११४२) चरणसिरिवरिया अउणुत्तरिए (११६६) वरिसे विहिपक्ख गणो य संठविप्रो ।।११४।।
बारस छत्तीसंमि ( १२३६) य, सयवरिसं पालिऊण परिपुण्णं । सिरि अज्जरक्खिय गुरु, गो दिवं तिमिर नयरम्मि ॥११५।। तप्पट्टपउम हंसो, गणाहिवो सूरिराय जयसिंहो ॥११६॥
अर्थात्-प्रार्य रक्षितसूरि (विजयचन्द्रसूरि) का जन्म वि० सं० ११३६ में हुआ । उन्होंने वि० सं० ११४२ में, ६ वर्ष की आयु में ही श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। वि० सं० ११६६ में श्रेष्ठिवर श्रावकाग्रणी यशोधन ने बड़े ठाट-बाट के साथ उनका सूरिपद महोत्सव किया और उसी समय विधिपक्ष गण (गच्छ) की स्थापना की। वि० सं० १२३६ में अपनी १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर आर्य रक्षितसूरि (विजयचन्द्रसूरि का ही अपर नाम) तिमिर नगर में स्वर्गस्थ हुए । उनके पट्टधर गच्छाधिप जयसिंह सूरिवर हुए। डा० क्लाट भी इस अभिमत से अपनी सहमति प्रकट करते हुए लिखते हैं :
Under him the Gachchha having a vision of Chakreshwari Devi received Samvat 1169 the name Vidhi Paksha Gachchha.2
इन उपरिलिखित गाथाओं के मनन के पश्चात् इस बात में तो किसी प्रकार का संशय नहीं रह जाता कि आर्य रक्षितसूरि ने वि० सं० ११६६ में विधिपक्षगच्छ की स्थापना की और अपनी परम्परा के श्रावकों को उत्तरासंग से षडावश्यक और साधुवन्दन का निर्देश दिया। किन्तु यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस विधिपक्ष का नाम अंचलगच्छ कब और किस प्रकार पड़ा। इस सम्बन्ध में जैन वांग्मय के पालोडन से दो प्रकार की विचारधाराएं प्रकाश में आती हैं :
पहली विचारधारा भावसागरसूरि द्वारा रचित श्री वीरवंश पट्टावलि से ही प्रकट होती है। इस पट्टावलि में उल्लेख है कि रक्षितसूरि द्वारा उनके शिष्य जयसिंहसूरि को प्राचार्यपद प्रदान करने के समय रक्षितसूरि के श्रमण-श्रमणी परिवार की संख्या निम्नलिखित रूप में थी :
१. प्रो. पीटर्सन ने मेमतुगसूरि द्वारा रचित शतपदीसारोद्धार के आधार पर प्रार्य रक्षित.
सूरि का देहावसानकाल वि० सं० १२२६ माना है, जबकि डा० क्लाट ने अन्य प्राधारों पर आर्य रक्षितसूरि का देहावसान वि० सं० १२३६ से १०० वर्ष की आयु में होना माना है।
--सम्पादक २. देखें Bhan R.E.P. १८८३-८४, पृष्ठ १३०, ४४२, बोल्युम १ ।
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