SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 538
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ १. २. ३. 3. ५. ७. ८. ε. १०. ११. १२. अंचलगच्छ साधु जनप्रतिमा की प्रतिष्ठा न करवाये । दीप-पूजा, फल- पूजा, बीज - पूजा तथा बलि पूजा ( जिनप्रतिमा की ) न की जाय । १४. १५. ] [ ५१६ तन्दुल- पूजा अथवा पत्र - पूजा की जा सकती है । श्रावक-श्राविकावर्ग वस्त्र के अंचल से षडावश्यक आदि धार्मिक क्रियाएं करें । पौषध वस्तुतः पर्व के दिन करें । सामायिक श्रावकवर्ग सायंकाल एवं प्रातः काल दोनों समय दो-दो घड़ी की करे । उपधान-मालारोपरण न किये जायें । शक्रस्तव से तीन बार स्तुति की जाय । मुनि को वन्दन करते समय एक खमासमरण दिया जा सकता है । स्त्रियां मुनियों को खड़ी रह कर ही वन्दन करें । कल्याणकों को न मनाया जाय । नमोत्थु के पाठ में - "दीवोत्ताणं, सरगगइपड़ट्टा" इत्यादि पाठ नहीं बोला जाय । १३. नमस्कारमंत्र में "पढ़मं हवइ मंगलं" के स्थान पर "पढ़मं होइ मंगलं " कहना चाहिए । चौमासी पाक्षिक पूर्णिमा को की जाय । सम्वत्सरी आषाढ़ मास की पूनम से ५० वें दिन की जाय और ग्रभिवद्धित मास वाले वर्ष में बीसवें दिन सम्वत्सरी की जाय । अधिक मास पोस अथवा आषाढ़ में ही होता है । इस समाचारी को अंचलगच्छ के प्राचार्य एवं अनुयायी एतद्विषयक प्रागमिक निर्देशों के निचोड़ अथवा सार रूप में मानते हैं और उनकी यह सुनिश्चित दृढ़ धारणा है कि यह कोई नया पन्थ अथवा मत नहीं अपितु शाश्वत जैन धर्म का परम्परागत विशुद्ध एवं वास्तविक स्वरूप है । समाज के रोम-रोम में व्याप्त शिथिलाचार को मिटाने के उद्देश्य से शाश्वत श्रागमिक मान्यताओं की पुन: प्रतिष्ठापना हेतु प्रशस्त प्रयास ही था । Jain Education International इस प्रकार आगमानुरूप विधिमार्ग की संस्थापना के अनन्तर विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले श्री विजयचन्द्रसूरि ( जिन्हें प्राचार्यपद पर अधिष्ठित करते समय रक्षितसूरि के नाम से अभिहित किया जाने लगा ) अनेक क्षेत्रों में धर्म का प्रचार करते हुए विउरणप नगर में पधारे। वहां उस समय का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy