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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अंचलगच्छ [ ५१७ भरत क्षेत्र के आर्यावर्त में मुनि विजयचन्द्र ने क्रियोद्धार किया है।" प्रभु के मुखारविन्द से यह सुन कर चक्रेश्वरी देवी हर्षविभोर हो उठी। प्रभु की देशना के पश्चात् प्रभु को वन्दन-नमन कर वह साधु विजयचन्द्र की सेवा में पावागिरी के शिखर पर उपस्थित हुई। उसने साधु विजयचन्द्र को भक्तिसहित वन्दन कर कहा-“भगवन् ! इतना बड़ा साहस मत कीजिये। अभी संलेखना-ग्रामरण अनशन करने की आवश्यकता नहीं है। भालिज्यनगर से यशोधन नामक एक श्रेष्ठी संघ के साथ कल प्रातःकाल यहां भगवान् महावीर के मन्दिर की यात्रा के लिये आ रहा है। विशुद्ध धर्म के स्वरूप पर प्रकाश डालने वाले आपके उपदेश से प्रबुद्ध हो वह आप लोगों को निर्दोष अशनपान से मास-तप का पारण करवायेगा।" इस प्रकार प्रार्थना करने के अनन्तर चक्रेश्वरी देवी अन्तर्धान हो गई। दूसरे दिन प्रातःकाल देवी द्वारा की गई भविष्यवाणी के अनुसार संघपति यशोधन विशाल संघ के साथ पावागिरि के शिखर पर यात्रार्थ पहुंचा । घोर तपस्वी मुनि विजयचन्द्र को देख कर संघपति ने अपने संघ के साथ बड़ी श्रद्धा-6 से उन्हें और उनके साथी साधुओं को वन्दन नमन किया। संघपति प्रौर सपना प्रार्थना स्वीकार कर मुनि विजयचन्द्र ने उन्हें वीतराग वाणी का रसास्वादन करवाते हुए धर्म के वास्तविक स्वरूप पर हृदयस्पर्शी प्रकाश डाला । जन्म-जरामृत्यु के घोरातिघोर दारुण दु:खों से सदा-सर्वदा के लिये मुक्ति दिलाने वाले वीतराग सर्वज्ञ-प्रणीत धर्म के स्वरूप को सुन कर संघपति और संघ के अनेक सदस्यों ने सम्यक्त्व की प्राप्ति की। धर्मोपदेश श्रवण के पश्चात् प्रबुद्ध संघपति यशोधन ने मुनि श्री विजयचन्द्र और उनके साधनों को प्रशन-पान ग्रहण करने की प्रार्थना की । संघपति और संघ के सदस्यों के विश्रामस्थलों (खेमों) में ४२ दोष-रहित एषणीय आहार-पानीय हेतु मधुकरी करते समय भिक्षा में उन मुनियों को जो विशुद्ध अशन-पान प्राप्त हुआ उससे महामुनि विजयचन्द्र और उनके साथी साधुनों ने एक मास की निर्जल-निराहार कठोर तपश्चर्या का समभावपूर्वक पारण किया। संघ के सभी सदस्यों के भोजनादि से निवृत्त हो जाने के पश्चात् श्रेष्ठि यशोधन वपने संघ के सदस्यों के साथ मुनिश्री विजयचन्द्र की सेवा में उपस्थित हुआ और उनसे निवेदन किया- "भगवन् ! सर्वज्ञ-प्रणीत जिनागमों के आधार पर जैनधर्म के विश्वकल्याणकारी, यथेप्सित फलप्रदायी स्वरूप पर सार रूप में प्रकाश डाल कर आपने हमें कृत-कृत्य किया। अब कृपा कर श्रावक-श्राविकाधर्म एवं श्रावक श्राविका वर्ग के कर्तव्यों पर विशद प्रकाश डालते हुए हमें ऐसा मार्ग-दर्शन कीजिये, जिससे कि प्रारम्भ-समारम्भपूर्ण गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी हम लोग अपने मानव-जन्म को सफल कर सकें। करुणासागर महात्मन् ! हमारा समुचित मार्गदर्शन कर इस ओर-छोरविहीन भवसागर में डूबते हुए हम जैसे लोगों का भवसागर से उद्धार कीजिये।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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