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________________ ५०८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ ये भी गुरु अाज्ञा में अधिक दिन नहीं रहे अत: २८३ पट्ट पर कक्क सूरि (षष्टम) को प्राचार्य पद पर नियुक्त किया। २६. देवगुप्तसूरि (पंचम) ३०. सिद्धसूरि (पंचम) ३१. रत्नप्रभ सूरि (सप्तम)। इनके एक शिष्य उदयवर्द्धन से 'द्विवन्दनीक गच्छ' और तपागच्छ के साथ इसके सम्मेलन से तपारत्न शाखा निकली। ३२. आचार्य यक्षदेव (षष्टम) ३३. कक्कसूरि (षष्टम) ये बड़े ही समर्थं प्राचार्य हुए । इन्होंने अपने गच्छ की नवीन व्यवस्थाएं कीं। इन्होंने यह निर्णय किया कि प्राचार्य रत्नप्रभ और आचार्य यक्षदेव जैसे आचार्य अब आगे के समय में नहीं होंगे। अतः अब भविष्य में किसी प्राचार्य का नाम रत्नप्रभ या यक्षदेव नहीं रखा जाकर केवल कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि इन तीन ही नामों में से कोई एक नाम रखा जाय । इन्होंने नागेन्द्र और चन्द्रगच्छ के सम्नन्ध में भी सुधार किया। इनके समय में पार्श्वनाथ सन्तानीय सन्त समुदाय चन्द्रगच्छ में सम्मिलित हुआ। आचार्य उदयवर्द्धन का समुदाय भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर दोनों ही की श्रमण परम्पराओं को मानने लगा और "द्विवन्दनीक गच्छ” के नाम से प्रसिद्ध हुआ और अन्त में तपागच्छ के साथ मिल गया। तपागच्छ और द्विवन्दनीक गच्छ का सम्मिलित स्वरूप तपारत्नगच्छ के नाम से प्रचलित हुआ। आपने उपकेश गच्छ की सुन्दर, प्रभ, कनक, मेरु, सार, चन्द्र, सागर, हंस, तिलक आदि २२ शाखाएं स्थापित की। ३४. आचार्य देवगुप्त (षष्टम) ३५. प्राचार्य सिद्ध (षष्टम) ३६. आचार्य कक्क (सप्तम) ३७. प्राचार्य देवगुप्त ३८. सिद्धसूरि (सप्तम) ३९. आचार्य कक्क (अष्टम) ४०. आचार्य देवगुप्त (अष्टम) । आपका जन्म विक्रम सम्वत् ६६५ में क्षत्रिय कुल में हुआ। इनको वीणा बजाने का बड़ा रस था। ये किसी तरह वीणा बजाना नहीं छोड़ सके। अतः संघ के दबाव से दूसरे मुनि को प्राचार्य पद दे वे लाट प्रदेश में चले गये । आपकी इस क्रिया शिथिलता के कारण संघ ने यह निर्णय किया कि भविष्य में उपकेश गच्छ में विशुद्ध जैन मातृकुल एवं पितृकुल वाले मुनि को ही संघ का अधिनायक बनाया जाय । ४१. प्राचार्य सिद्ध (अष्टम) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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