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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] खरतरगच्छ [ ४६७ नागौर से यात्रार्थ प्रस्थित हुए । क्रमशः श्री नर भट में पार्श्वनाथ की तीर्थ यात्रा कर संघ कन्यानयन नामक तीर्थ नगर पहुंचा। वहां आठ दिन तक उत्सव करने के पश्चात् ४०० घोड़ों, ५०० शकटों, ७०० बैलों, और यात्रियों के विशाल संघ के साथ यमुना महानदी को नावों से पार किया और वे हस्तिनापुर पहुंचे । श्री पूज्य जिनचन्द्रसूरि (द्वितीय) ने संघ के साथ शान्तिनाथ, श्ररनाथ, कुंथुनाथ देवों की यात्रा की। संघ ने इन्द्र पदादि के चढावे बोल कर अपने द्रव्य का सदुपयोग किया । ठक्कर देवसिंह श्रावक ने बीस हजार जैथल बोलकर इन्द्र पद ग्रहण किया। वहां देव भण्डार में चढावों से एक लाख पचास हजार जैथल की श्रय हुई | तत्पश्चात् संघ मथुरा तीर्थ की यात्रा करता हुआ दिल्ली के निकट पहुंचा । वर्षाकाल लग चुका था, अतः श्री पूज्यजी ने संघ को विसर्जित किया और प्रचलादि श्रावकों के साथ खंड सराय में चातुर्मासावास के लिये ठहरे । सुलतान के कहने और संघ के आग्रह से "रायाभिप्रोगेणं गरणाभिप्रोगेणं" प्रादि आगम वचनों का अनुसरण करते हुए श्री पूज्यजी चातुर्मासावास काल में ही बागड़देश के श्रावक समुदाय के साथ मथुरा गये और उन्होंने सुपार्श्वनाथ तथा महावीर तीर्थंकरों के मन्दिरों की यात्रा की । यात्रा के पश्चात् चातुर्मासावधि में ही वे पुनः दिल्ली लौटे और शेष चातुर्मास काल खंड सराय में व्यतीत किया । उन्होंने उस चातुर्मास काल में दो बार स्व० जिनचन्द्रसूरि ( प्रथम ) के स्तूप की विशाल जनमेदिनी के साथ यात्रा की । चातुर्मासावधि में ही विहार व तीर्थयात्राएं करने के औचित्य के सम्बन्ध में स्वर्गीय पंन्यास श्री कल्याणविजयजी महाराज ने अपने विचार इस रूप में प्रकट किये "आचार्य जिनचन्द्रसूरि के द्वारा दूसरी बार जिनाज्ञा भंग करने का यह प्रसंग है । पहले आपने शत्रु जय गिरनार के संघ के साथ वापस भीमपल्ली आते हुए वायड महास्थान में प्राषाढ़ी चौदस की और बाद में वहां से श्रावरण वदी में भीमपल्ली आकर चातुर्मास्य पूरा किया था । इस प्रसंग पर तो लगभग तीर्थों में जाने आने में ही खासा चातुर्मास्य व्यतीत किया । पट्टावली लेखक कहता है सुरत्रारण के उपरोध से और संघ के प्रत्याग्रह से आप मथुरा के लिये निकले थे, जो सरासर झूठा बचाव है । सुरत्राण को तो कोई मतलब ही नहीं था और संघ का भी इन्होंने विसर्जन कर दिया था, कतिपय बागड़ के श्रावकों के साथ आप - खंडसराय चातुर्मास्य व्यतीत करने के लिये ठहरे थे । फिर मथुरा जाने का तात्कालिक क्या कारण उपस्थित हुआ कि जिससे बाध्य होकर आपको मथुरा जाना-माना पड़ा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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