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________________ ४६० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ प्रधान चैत्यवासी नामक द्रव्य परम्परा द्वारा छा दी गई भौतिकता प्रधान आडम्बर पूर्ण काली घटाओं को छिन्न-भिन्न कर संसार के भव्य प्राणियों के समक्ष, जन-जन के समक्ष विशुद्ध जैन धर्म और आगमिक विशुद्ध श्रमणाचार के स्वरूप को उद्भासित करना चाहता है, तो उन्हें निस्सीम प्रसन्नता का अनुभव हुआ। वर्द्धमानसूरि को उद्योतनसूरि के कुछ ही क्षणों के सहवास से यह दृढ़ विश्वास हो गया कि जिन आगम मर्मज्ञ विशुद्ध श्रमणाचार के प्रतिपालक गुरु की खोज में वे थे, उनकी आशा के पूर्णतः अनुरूप गुरु उन्हें मिल गये हैं। वर्द्धमानसूरि ने तत्काल उद्योतनसूरि को अपना धर्मगुरु स्वीकार करते हुए उनके पास उपसम्पदा अर्थात् प्रागम विधि के अनुसार अभिनव रूप से निर्ग्रन्थ श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। उद्योतनसूरि ने अपने परम जिज्ञासु नये शिष्य वर्द्धमानसूरि को अनुपम उदारता और तत्परता के साथ आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान देना प्रारम्भ किया। क्रमशः उद्योतनसूरि ने अपना तलस्पर्शी आगमों का ज्ञान वर्द्धमानसूरि के अन्तर्हद में उंडेल दिया। उत्कट अध्यवसाय, प्रगाढ़ आस्था, अटूट श्रद्धा और विनय के साथ अहर्निश अभ्यास में निरत रहते हुए कुशाग्र बुद्धि वर्द्धमानसूरि ने कुछ ही समय में आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर लिया। उद्योतनसूरि ने सर्वज्ञ प्रणीत विशुद्ध जैन धर्म के प्रचार-प्रसार की दिशा में वर्द्धमानसूरि को समीचीन रूप से मार्ग-दर्शन करते हुए यही मूलमन्त्र दिया कि चरम तीर्थंकर प्रभु महावीर द्वारा तीर्थ प्रवर्तन के समय दिये गये उपदेशों के आधार पर गणधरों द्वारा ग्रंथित द्वादशांगी और द्वादशांगी के आधार पर चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा नियूंढ़ (सार रूप में संकलित) केवल आगमों में निर्दिष्ट पथ ही प्रत्येक मुमुक्षु के लिये अनुकरणीय व श्रेयस्कर तथा अन्तिम रूप से मान्य है। अपनी आयु का अन्तिम समय समीप पाया जानकर वनवासी उद्योतनसूरि ने अपने शिष्य वर्द्धमान मुनि को सभी भांति सुयोग्य समझ कर अपना पट्टधर नियुक्त किया और आलोचना संलेखनापूर्वक पूर्ण समाधि के साथ स्वर्गारोहण किया। ___ अपने गुरु के स्वर्गारोहण के अनन्तर वर्द्धमानसूरि देश के विभिन्न भागों में विचरण करते हुए विशुद्ध श्रमणाचार का और धर्म के वास्तविक स्वरूप का बोध जन-जन को कराने लगे। . . उज्जयिनी की ओर विहार काल में वर्द्धमानसूरि को अतीव कुशाग्र बुद्धि और वेद-वेदांगों के उद्भट विद्वान् जिनेश्वर और बुद्धिसागर नामक दो शिष्य-रत्न प्राप्त हुए । सुयोग्य शिष्यों को पाकर वर्द्धमानसूरि ने उन्हें जैन आगमों का अध्ययन करवाया और स्वल्प काल में ही वे दोनों सहोदर मुनि जैनागमों के प्रकांड विद्वान् बन गये। धर्म के विशुद्ध स्वरूप को जन-जन के समक्ष प्रकट करने हेतु समग्र धर्म क्रान्ति करने के अपने गुरु के चिरभिलषित लक्ष्य से पूर्ण रूपेण अवगत होने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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