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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] खरतरगच्छ [ ४८६ ६. वि० सं० १६७५ में ही खरतरगच्छ में श्री सारजी से श्री सारगच्छ नामक शाखा की उत्पत्ति हुई। १०. वि० सं० १६८७ में श्री जिनसागरसूरि ने लघु प्राचार्या नामक एक नवीन शाखा का खरतरगच्छ में प्रचलन किया। उपरिवणित सभी विवरणों के सन्दर्भ में तटस्थ दृष्टिकोण से विचार करने पर निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट रूप से प्रकाश में आते हैं - विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में श्री वर्द्धमानसूरि नामक चैत्यवासी विद्वान् श्रमण ने प्रारम्भिक आगमिक अध्ययन से प्रबुद्ध हो तत्कालीन जैन संघ में आमूलचूल समग्र क्रान्ति करने का दृढ़-संकल्प किया। अपने चैत्यवासी गुरु द्वारा दिये गये सभी प्रकार के प्रलोभनों को ठुकराकर उन्होंने समान विचार वाले अपने कतिपय चैत्यवासी श्रमणों के साथ अपने गुरु से अन्तिम विदा ले चैत्यवास का परित्याग किया। चैत्यवासी परम्परा के शताब्दियों से चले आ रहे अखंड एवं सार्वभौम वर्चस्व के कारण उस समय सर्वज्ञ प्रणीत विशुद्ध जैन धर्म के स्वरूप को अपने श्रमण जीवन में ढालकर उसका यथातथ्य रूप से उपदेश करने वाले और आगमों में निर्दिष्ट विशुद्ध श्रमण चर्या का निर्दोष रूप से पालन करने वाले श्रमणों की संख्या नितान्त स्वल्पातिस्वल्प मात्रा में अवशिष्ट रह गई थी। वर्द्धमानसूरि ने जैन धर्मसंघ में सम्पूर्ण क्रान्ति का सूत्रपात करने से पूर्व आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्यरूपेण आवश्यक समझा क्योंकि आगमों के गहन अध्ययन के बिना प्रभु महावीर द्वारा तीर्थ प्रवर्तन के समय संसार के समक्ष रखे गये जैन धर्म के अध्यात्म प्रधान विशुद्ध स्वरूप का और विशुद्ध श्रमण चर्या का बोध होना नितान्त दुष्कर था। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे आगमों में निर्दिष्ट प्राध्यात्मिक पथ पर निरन्तर अग्रसर होने वाले आगम मर्मज्ञ गुरु की खोज में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में अप्रतिहत विहार करने लगे। पर्याप्त प्रयास के पश्चात् दिल्ली के आसपास अपनी कल्पना के अनुरूप सच्चे गुरु के होने की सूचना उन्हें मिली । वर्द्धमानसूरि खोज करते हुए उनकी सेवा में उपस्थित हुए । वे श्रमण श्रेष्ठ वनवासी (अरण्यचारी) परम्परा के विरल सन्त थे । उनका नाम था उद्योतनसूरि । शिष्य परम्परा के नाम पर उनके पास एक भी शिष्य अवशिष्ट नहीं रह गया था। वर्द्धमानसूरि ने उन श्रमणोत्तम उद्योतनसूरि को वन्दन नमन के पश्चात् अपना परिचय दिया । जब उद्योतनसूरि को यह विदित हुआ कि यह साहसी श्रमण विशुद्ध जैन धर्म और श्रमणाचार के विशुद्ध स्वरूप पर शिथिलाचारी आडम्बर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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