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________________ ४७८ [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ कह्यो म्हारइ दाइ आणइ मइ घाल्यो, श्री जिनवल्लभसूरि न प्रो एगुराही जिनशेखर, समस्त संघ १४ आचार्य मिली काग्रो ए बारउ काढयो नहितर थे ही विहार करो, जिनदत्तसूरि विहार कीधयो, उपवास तीन करि स्मरयो, मूनहि किसहि अरथि स्मरलो तू हे, कह्यो मुहूर्त तीन बीजइ मुहूर्ति म्हूं नहिं पाट हुओ, गच्छ सूं विरोध ह्यों, किसी-किसी दिसि विहार करओ, मारुवाडि मरुस्थलि दिशि विहार करि जे थी तुम्हें स्मरस्यो ते थी हूं जुदऊं। "खस्तरगच्छीया वृहद् गुर्वावली" में भी इस प्रकार के विरोध की झलक दिखाई देती है जैसे कि : "विज्ञप्तं च देवभद्राचार्य:-“कतिचिद्दिनानि पत्तनादन्यत्र विहर्तव्यम् ।” जिनदत्तसूरि—“एवं करिष्यामः ।" "अन्यदा जिनशेखरेण व्रत विषये अयुक्तं कृतं किंचित्, ततो देवभद्राचार्येण निस्सारितः............यदा श्री जिनदत्तसूरयो बहिभूमौ गतास्तदा पादयो पतितो भरिणतवान्–“मदीयो अन्याय क्षन्तव्यो वारमेकम्, न पुनः करिष्यामि ।" कृपोद्धयः श्री जिनदत्तसूरयः । प्रवेशित : । पश्चात् आचार्यैः भरिणतम्-"न सुखावहो भवतां भविष्यति ।" अर्थात् देवभद्राचार्य ने जिनदत्तसूरि को जिनवल्लभसूरि के पट्ट पर आसीन करने के अनन्तर कहा-"अब आप कतिपय दिनों तक अहिल्लपुर पट्टण से बाहर अन्यत्र.ही कहीं विहार करते रहें।". जिनदत्तसूरि ने कहा- “ऐसा ही करूगा।" एक दिन जिनशेखर ने व्रत पालन में किसी प्रकार का अपराध कर दिया। देवभद्राचार्य ने उसे संघ से बहिष्कृत कर दिया। जिनशेखर ने जिनदत्तसूरि के चरणों में गिरकर अपने अपराध के लिए क्षमा चाहते हुए प्रार्थना की कि वे उसे पुनः संघ में सम्मिलित कर लें। करुणानिधि जिनदत्तसूरि ने पुनः उसे संघ में सम्मिलित कर लिया। इस पर देवभद्राचार्य ने कहा-"यह आपके लिए कदापि सुखावह नहीं होगा।" समयसुन्दर उपाध्याय ने भी इस विरोध पर पूर्ण रूपेण स्पष्ट प्रकाश डालते हुए लिखा है-"श्री जिनवल्लभसूरि निष्कासित साधु मध्यग्रहणेन त्रयो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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