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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
खरतरगच्छ
[ ४७७ प्रणाहल्लपुर पट्टण में वसतिवास की स्थापना के अनन्तर यह नगर चेत्यवासियों और वसतिवासी परम्परा के सभी गच्छों का एक प्रमुख कार्यक्षेत्र बन गया। वर्द्धमानसूरि की परम्परा के प्राचार्यों और चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों में परस्पर प्रमुख प्रतिस्पर्धा थी । वर्द्धमानसूरि ने चैत्यवासियों की अनागमिक मान्यताओं और अशास्त्रीय प्राचार-विचार एवं आडम्बरपूर्ण धार्मिक कर्मकांडों, उनके आयोजनों आदि के उन्मूलन के लिये ही एक नवीन धर्मक्रांति का सूत्रपात्र किया। इस कारण चैत्यवासी परम्परा के अनुयायियों का वर्द्धमानसूरि की परम्परा के विरुद्ध होना वस्तुतः स्वाभाविक ही था। किन्तु चैत्यवासी परम्परा की जिन जनप्रिय, जन मनोरंजनकारी एवं चित्ताकर्षक मान्यताओं को सुविहित परम्परा के अन्यान्य गच्छों के विभिन्न प्राचार्यों ने जिनशासन प्रभावना के नाम पर अपना लिया था, वे गच्छ भी वर्द्धमानसूरि द्वारा प्रचलित की गई क्रान्तिकारी परम्परा के विरोधी बन गये। जिनवल्लभसूरि और जिनदत्तसूरि के जीवन काल में इस प्रकार के विरोधों की झलक जैन वाङ्मय से दृष्टिगोचर होती है।
खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में "ततो वाचनाचार्या जिनवल्लभ गरणी कतिचिद्दिनानि पत्तनभूमौ विहृत्य न तादृशो विशेषेण बोधो विधातु कस्यापि शक्यते येन सुखमुत्पद्यते मनसि । ततश्च........ भगवद् भरिणत विधिधर्मोत्पादनाय चित्रकूटदेशादिसु विहृतः।"
इस उल्लेख से यही आभास होता है कि अहिल्लपुर पट्टण में चैत्यवासियों के साथ-साथ सुविहित परम्परा के अन्य गच्छों के अनुयायी भी जिनवल्लभसूरि के विरोधी बन गये थे । इस विरोध के परिणामस्वरूप ही सम्भवतः जिनवल्लभसूरि को पाटण छोड़कर चित्तौड़ की ओर विहार करना पड़ा। इस घटना के पश्चात् अपने जीवनकाल में वे कभी पट्टण की ओर लौटकर नहीं आये । अन्य क्षेत्रों में ही विचरण करते रहे। इसी प्रकार जिनवल्लभसूरि के पट्टधर प्राचार्य जिनदत्तसूरि के जीवन वृत्त से भी यही तथ्य प्रकाश में आता है कि चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों के साथ-साथ अन्यान्य तेरह गच्छों के आचार्य भी जिनदत्तसूरि का बड़े उग्र रूप से विरोध करते रहे ।
विक्रम की सतरवीं शताब्दी में जिनराजसूरि तक के प्राचार्यों के जीवनवृत्त पर प्रकाश डालने वाली खरतरगच्छ की एक अन्य पट्टावली में इस प्रकार के विरोध के स्पष्ट रूपेण दर्शन होते हैं। वे उल्लेख इस प्रकार हैं :
"विणइ दिनी बाहरी गया छ, श्री जिनदत्तसूरि, तिवारइ, जिनशेखर आवी पगै लागऊ, कह्यउ मारु........
"माहि घातो, गुरु साथै लेइ अाव्या, अने रे प्राचार्य कयऊ ए काढयउ हुँतो तुम्हे अणपूछि किम माहि पाण्यो, तिवारइ जिनदत्तसूरि
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