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________________ ४६४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ इस प्रकार वर्द्धमानसूरि ने चैत्यवासियों के दुर्भेद्य गढ़ पाटण नगर के चैत्यवासियों पर विजय प्राप्त कर गुजरात के पट्टनगर पाटरण में अनेक शताब्दियों से तिरोहित, वसतिवास का शुभारम्भ किया । उपरिवरिणत वृत्तान्त श्री जिनपतिसूरि के शिष्य, विक्रम की तेरहवीं चौदहवीं शती के विद्वान् श्री जिनपालोपाध्याय द्वारा विक्रम की १४वीं शताब्दी के प्रथम दशक में लिखा हुआ होने के कारण पर्याप्त रूपेण प्राचीन उल्लेख है । "राजन् ! हमारी भी यह निश्चित मान्यता है कि गरणधरों एवं चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा ग्रथित, दृब्ध आगम और उनके द्वारा दिखाया गया मार्ग ही प्रामाणिक है, अन्य नहीं" जिनेश्वरसूरि द्वारा दुर्लभराज को कहे गये इस वाक्य का ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत बड़ा महत्व है क्योंकि इस वाक्य से वर्द्धमानसूरि द्वारा की गई महान् धर्मक्रान्ति में निहित मूल भावना पर तत्कालीन उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूलभूत मान्यता पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है । जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों द्वारा निगमों की रचना के माध्यम से जैनधर्म के विशुद्ध मूल स्वरूप पर डाले गये सघन घनघोर घटा तुल्य बाह्याडम्बर के पर्दों को छिन्न-भिन्न करने के उद्देश्य से जिस समय एक ऐतिहासिक धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किया, उस समय उन्होंने स्पष्ट रूप से उद्घोष किया था कि प्रत्येक जैन के लिये गणधरों द्वारा ग्रथित तथा चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा दृब्ध नियूँढ़ आगम ही प्रामाणिक हैं, अन्य अर्थात् नियुक्ति, भाष्य, टीका और चूरिंग प्रामाणिक नहीं । कालान्तर में सम्भवतः लोक में रूढ चैत्यवासी परम्परा द्वारा प्रचलित की गई कतिपय मान्यताओं को जैनधर्म के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से सुविहित परम्परा के अन्यान्य गच्छों द्वारा मान्य कर लिये जाने के अनन्तर खरतरगच्छ ने भी अपनी उक्त मान्यता में परिवर्तन कर गणधरों, चतुर्दश पूर्वधरों एवं दशपूर्वधरों द्वारा दृब्ध, केवल आगमों के स्थान पर नियुक्तियों, टीकाओं, भाष्यों और चूरियों - इस सम्पूर्ण पंचांगी को ही मानना प्रारम्भ कर दिया हो । इन सब महत्वपूर्ण तथ्यों के सन्दर्भ में विचार करने पर यही अनुमान किया जाता है कि जिनेश्वरसूरि द्वारा दुर्लभराज के समक्ष प्रकट किये गये श्रागम मात्र की प्रामाणिकता विषयक उल्लेख खरतरगच्छ द्वारा पंचांगी को मान्य करने से बहुत पहले का है और सम्भवतः जिनेश्वरसूरि के समय का ही हो, जो लिखित रूप में अथवा श्रुत परम्परा से जिऩपालोपाध्याय को प्राप्त हुआ हो और उन्होंने यथावत् गुर्वावली में लिख दिया हो । "वास्तविकता अपने पीछे वस्तुतः कोई न कोई चिह्न छोड़ ही जाती है ।" यह उक्ति वास्तव में इस गुर्वावली में समय-समय पर लगी परिवर्तनों की अनेकानेक थपेड़ों के उपरान्त भी अक्षरश: चरितार्थ हो ही गई है । कालान्तर में जब मान्यताओं ने मोड़ बदले तो उन बदलती हुई मान्यताओं के मोड़ के साथ-साथ उक्त घटनाचक्र के विवरण को भी मोड़ दिया गया । यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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